सूर पूर्व बृजभाषा और उसका साहित्य | Soor Purva Brijbhasha aur Uska Sahitya

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Soor Purva Brijbhasha aur Uska Sahitya by शिवप्रसाद सिंह - Shivprasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिक प्रास्तान कि ६१ विक्रम की सत्रहवीं दतान्दी के पूर्वाद्ध में ब्रजभाषा में अत्यन्त उच्चकोटिके साहित्य का निर्माण हुआ । ऐसा समझा जाता है कि केवल पचास वर्षों में इस भाषा ने अपने साहित्य की उक्छरएटता, मधुरता मौर प्रगल्मता के बर पर उत्तर भारत की सर्वश्रेष्ठ भ षा का स्थान ग्रहण कर लिया । भवित-आन्दोलन की प्रमुख भाषा के रूप में उसका प्रभाव समूचे देश में स्थापित हो गया घौर गुजरात से बंगाल तक के विभिन्‍न भाषा-भाषियों ने इसे 'पुरुपोत्तम- भाषा' के रूप में अपनाया तथा इसमें काव्य-प्रणयन का प्रयत्न भी किया । एक ओर महाप्रभु वल्लमाचार्य ने इसे पुरुषोत्तम भाषा को आदरास्पद सज्ञा दी क्योकि यह उनके आाराध्य देव कृष्ण को जन्म-भूमि की भाषा थी, टूसरी ओर काव्य भर साहित्य के प्रमी सहृदयो ने इसे 'मापामणि' की प्रतिष्ठा प्रदान की । डॉ० प्रियर्सन ने हिन्दी के अभिजात साहित्य के माध्यम के रूपमे प्रतिष्ठित इस मापा को प्रधानतम वोी { 09६९५०5 72€०1५० ) कहा ह । इसे वे मघ्यदेक कौ आदद भाषा मानते ह 1 मण्डप के कवियो कौ रचनामो का सौष्ठव ओर सौन्दयं अप्रतिम था! उनके सगोतमय पदो से आकृष्ट होकर सम्राट्‌, अकबर इस माषा के भक्त हो गये । डॉ० चादुर्ज्या ने इसी तथ्य कौ गोर सकेत करते हुए लिखा है कि “बाबर के सदृश एक विदेशी विजेता के किए जो भाषा केवल मनोरंजन और साहित्यिक औत्सुक्य का प्रयोग- मात्र थो वही उसके भारतीयकृत पौत्र सम्राट अकबर के काल तक पूर्णतया प्रचलित स्वाभाविक 1 ॥ ४८2 णि) जत ४५६4६10 [लधगणढर्ण 8 ८8551081 06110 अतं 15 8108 €जौ- ९661९ {० ७९ धी< तव]€6०§ एछतपठ साठ पाठ ५५६ 95 ८जाधएंडाडत 85 (५०21 न गीगाएं .आापुण०0७ एप प्6 ०080 00 ठप (6726195, रिः, 8 दे ५ + #




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