अर्थशास्त्र | Arthashastra
श्रेणी : अर्थशास्त्र / Economics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
423
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)झर्वेशास्त्रका स्वरूप श्रीर क्षेत्र ३
की पूतिके लिए विविध प्रकारके कल कारलानो, वैक, रेल, जहाज, डाक ग्रौर
तार इप्मदिका निर्माण हुमा है। इन्दी आवश्यक्ताश्रो कौ पूतिके लिए साधा-
रणतः मनुष्य चिन्तित रहता है श्रौर कठिन परिश्रम तथा दौडधूप करताहै। ्रतएव
यह कोई प्राख्चरयकी वात नही है कि मनुप्य इम विषयकौ श्रोर विशेषरूप से
झाकृष्ट हुआ है तथा उसने इसके अध्ययनकी चेप्टा की है जिसके परिणामस्वरूप
एक शास्त्रकी उत्पत्ति हुई, जिसे झरथंशास्त्र वहते हे।
झर्थशास्त्रके नामही से उस विद्याका बोध होता हैं, जिसका सम्बन्ध “अर्य'
अर्थात् धन, द्रव्य श्र सम्पत्तिसे हो। हम देखते भी है कि मनुप्यके समयका एक
बडा भाग अर्थके उपाजेन श्रौर उसके दर श्रपनी श्रावद्यवताग्रोकौ प्ति व्यय
होता है। जिन झावश्यकताश्रोकी पूर्ति अर्थ द्वारा होसकती हैं उनको झाधिक
झावश्यक्ताएं कह सकते हैं। ्राजकलके भ्राथिक समाजमें प्राथ. सभी प्रावश्य-
कता्नोकौ पूतिक लिए प्रत्यक्ष श्रथवा परोक्ष रूपमे प्र्थकौ श्रावश्यक्ता पड़ती है!
यह कहना ठीक नही होगा कि मनुप्यकी कुछ आवस्यक्ताए प्राथिक होती है श्र
कु झनाधिक श्रौर तत्सम्वन्धी झाधिक तथा म्रनाथिक बाय भी होते हैं। वास्तव
में घ्रत्येक प्रावश्यकता तथा कायेका क्म या श्रधिक मात्रा में श्राथिक पक्ष भ्रवश्य
रहता है 1 श्रतएव इन कार्यों और श्रावश्यकताओओसे श्रथशास्त्रका सम्बन्ध हो
जाता है तभी अवंशास्त्री को उनका श्रष्ययन करना पडता है।
मनुप्यकी श्रावश्यक्ताए जहा अ्रपरिमित होती है, वही उनी पूतिके साधन
परिमितभी होते हैं। अ्रतएव मनुष्य ग्रपनेको इस प्रकारकी परिस्थिति में पाता है
जिसमें उमे यह् निणेय करना पडता है कि किन श्रावश्यकताझकी पुत्ति की जावे
और किम अश में । हम देखते है कि प्रत्येक कुटुम्ब की ग्राय सीमित होती है परन्तु
उसके सामने श्रनिक प्रकारकी श्रावश्यकताए रहती है, जिन सभी की तृप्ति इस
सीमित प्रायसे नही हो सकती क्योकि झ्राय का जो भाग एकं आवश्यकता की
पूर्ति पर व्यय किया जाता है, वह दूसरी श्ावश्यकताकी पूति के लिए उपलब्ध
नहीं रहता। अर्थात् एक झावश्यकताकी पूति का अर्थ हुमा किसी दूसरी इच्छा
का श्रतृप्त रहना। मनुष्यकी झावश्यकताओओकी पूर्ति उपभोगकी वस्तुग्नोसे होती
है। समाजके सभी लोगों को सभी आझावश्यकताशके लिए उपभोगकी वस्तुषु
पर्याप्त नही होती है। इसका प्रधान कारण यही है कि इन वस्तुभ्रोको उ-पन्न
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