सम्मलेन पत्रिका | Sammelan Patrika

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Sammelan Patrika by राजर्षि पराशर - Rajrshi Parashar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ ^ = + क 0 - ग्भ - , बात यह है कि मध्यकाल का रीतिंवादी प्रवाह 'प्रतिमा' की जगह 'ब्युत्यत्ति' और . 'अम्यास' मर बल देता या। युत्ति मौर अभ्यास पूर्वं निर्धारित प्रतिमानों से संबंध स्थिर कर लेते हैं। रीतिकाल की अधिकांश विशिष्ट, ब्यूत्पन्न प्रतिमाएँ दरवारों में सिमट मई थीं। इन सब कारणों से साहित्य का प्रवाह प्रशुर साथा मे दरबारी सानसिकता से जुड़े मय: था, रियाज का प्रदर्शन करने में लग गया था--तेली के बैल के मानिद एक ही परिधि में घूमने लय गया था। समाज के एक बड़े माय की सामसिकता उससे कट गई थी। हस प्रकार यह भावधारा आवृत्त हॉकर निर्जीव होने लगी थी। इसलिपए इष ठनि का उत्सा “रसबाद' खुली सामाजिकता, जीवन और जयत्‌ से संबद्ध साहित्यिक अभिश्यम्ति के लिए अपर्याप्त पड़ने कभा था। साथ ही इस समय तक साहित्य पद्यात्मक प्रचुर था जिसमें स्वमावत: आपेक्िक. रूप से बतंमान से पीछे रहा जाता है। वाजपेयी जी तक गदसाहित्य ने अपनी पर्याप्त समृद्धि प्राप्त कर सी थी। मद्य साहित्य में व्यक्त मादक्षं की जमह्‌ यथ मे वतमान, चया अधिक मुखर शता है भौर कथा साहित्य के माध्यम से अधिक मुखर भी होने लग गया था। रस. सिद्धान्त का इस साहित्य पर किस प्रकार संचार किया जाय---इसकी चिता शुक्लजी को ही हो गई थी । काव्यसूप की दृष्टि से 'प्रबन्च' के पक्षकार शुक्छजी अपेक्षा 'प्रगीत' के पक्षघर वाजपेयीजो को रससिदान्त के संचार की यहाँ भी चिंता थी, जिसके फलस्वरूप उन्होंने प्रतिष्ठापित किया कि प्रबन्ध की अपेक्षा प्रगीत में रस-धारा का छिरक। रेखा रहित आस्वाद होता है। सब कुछ कहने का अभिप्राय यह कि क्रमायत तथा रीतिकालीन रूढ़ियों के घेरे में आकार प्रहण करने बाले रससिद्धान्त पुनः विचार करने की आवदयकता बिवेचकों को महसूस हुई। एक तो जैसा कि ऊपर कहा गया कि पुरातन काव्यरूपों की अपेक्षा नई अनुभूति से नए काव्यरूप फूट रहे थे। दूसरे यह कि काव्यगत वस्तुवैविध्य का क्षेत्र बढ़ता जा रहा था। तीसरे यह कि मावो- लेजक सामग्री के अ्हण की दृष्टि भी बदलती जा रही थी। चौथे आदर एवं जीवन-मूल्यों में तेजी से परिवर्तन होता जा रहा था। परिवर्तन पढले मी द्वोता था, परिवर्तन अब मी हो रहा था--हो रहा है, पर पहले का परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता था कि वष्ट असंलक्ष्य क्रम था, आधुनिककाल का परिवर्तन छलाँय मारता हुआ.आ रहा हैं। इसलिए इसे 'पुरातन' से काट कर कमी-कमी 'नया' कहने का उपक्रम सी हुआ है। इस 'बिच्छेद' वादी प्रवृत्ति ने साहित्य को काफी नुकसान पहुँचाया है। पाँचवें साहित्य का संबंध जिस सामाजिक चेतना से है--वह भी बदल रही थी--ये सब बातें 'रस' के स्वरूप मे कमन्तिकारी षरिवतेन की मंम कर रही थीं अथवा. उसकी अंपरयाप्तिता को ुनौती दे रही थीं। मही कारण है कि शुक्छजी तक वाजपेयीजी रस के स्वङ्म कृ भ्यापक रूप मे परिभाषित कर षट ये । सुक्छजी ने “र्स' को माननीय मनोवृत्ति का -पर्योम अना दा भौर इस बात पर बल दिया. कि. यदि कान्य मानम की कृति टै तो उसकी पदक शूरौ मनकरीमता होनी चाहिए । ब$जपेयी जी ने सपनी विगेष- ना से सफ कहा कि दयं संबेदवसील' 'समुझत' सामस ने पहल काल्यास्वरद साभ रस है। जन वे शुंझलाकर कहते: हैं-सआखिर काव्य का रस है क्यः ? बह मानव मात बहू आमन्दा- त्मकष प्रतिक्रिया है जो ष्ठ साहित्य को पढ़ कर उसे उपरब्स होती. है” * “रस तो काव्यानुयूति , आाषाढ़-मार्भश्षी्ष ८. कक, १८९८] ~




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