जिनवाणी अपरिग्रह विशेषांक | Jinvani Aprigrah Visheshank

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूल उत्स माना है । सिद्धान्त रूप में जीवन श्रौर समाज का अपरिहायें अंग होते हुए भी श्रपरिग्रह-विचार व्यवहार में श्रात्मसात्‌ नही हो पा रहा है । मोटे तौर से देखें तो पता चलता है कि वस्तु या घन का जो संग्रह है, उसके दो सुल हेतु है। एक संरक्षण श्र दूसरा शोषण । संरक्षण वृत्ति में परिश्रम श्रौर न्याय, नीति पूर्वक घन का उपाजेंन किया जाता है । उसका दुव्यंसनों में दुरुपयोग न होने के क़ारण स्वाभाविक श्रावश्यकताश्रो की पुरति के बाद वह वच रहता है- तथा अर्थेशास्त्रीय दृष्टि से उत्पादन के बहुविध साधनों में उसका नियोजन करने से घन की सतत गुणाकार वृद्धि होती रहती है, जैसा कि जैन समाज तथा अन्य निव्यंसनी समाजों मे दृष्टिगत होता है । संरक्षण वृत्ति के लोग इस प्रकार से अर्जित घन का सदुपयोग शिक्षा, चिकित्सा जैसे लोकोपयोगी कार्यों में झधिका- घिक करते है । जनहित की यह प्रवृत्ति जैन धर्मानुयायियों में संख्या के श्रनुपात की दृष्टि से सर्वाधिक है । पर जिनकी वृत्ति संरक्षण की न होकर शोषण की होती है, त्रे येन-केन प्रकारेण अधिकाधिक सग्रहू करने को बेताब रहते है । घी मे गाय की चर्बी तक मिलाने मे वे नही हिचकते । वस्तुनो में साधारण भिलावट श्रादि करना उनके लिए सामान्य बात है । ऐसे लोग श्रपने संचित घन कौ न स्वयं ्रपने लिए उपयोग कर पाते है ओौर न समाज के लिए । उनका घन टोंग, प्रदशंन, दुर्व्यसन, फंशन-परस्ती श्रौर विलासिता मे व्यय होता है। ऐसे लोगो का भ्राचरण जेन संस्कृति भ्नौर अप रिग्रह-विचारणा के विपरीत है । इन लोगो की लक्ष्मी कमला- सिनीन होकर उलूक वाहिनी होती है, जिसे दिन में भी रात श्रर्थात्‌ उजाले में भी अंघेरा दिखाई देता है । यही भ्रंघेरा उन्हे दुःखी, बेचैन प्रौर अशान्त बनाये रखता है । करोड़ो की सम्पत्ति होते हुए भी ऐसे लोग हृदय से अत्यन्त क्रूर, निर्देयी और संवेदना मे अत्यन्त गरीब होते है । श्राज समाज में मध्यम वं की स्थिति श्रत्यन्त दयनीय है । न तो वह उच्च वर्ग की भॉति सुविधाजीवी है झर न निम्न वर्गें की भाँति श्रमजीवी । सुविधा भ्रौर श्रम की दुविधा से ग्रस्त यह्‌ जीव सामाजिक रूढियों श्र धार्मिक आडम्बरों से मुक्त नही है । उच्च वर्ग के साथ प्रभुता श्रौर प्रदर्शन की होड़ में यह भी पीछे नही रहना चाहता । परिणामस्वरूप दुहरी मार और दोहरे भार से त्रस्त है यह्‌ । गृहस्थो को बात दछोडे, यदि हम देश-विंदिश के वृहत्‌ साघु-समाज की जीवन-पद्धति को देखें तो पता चलेगा कि जिन साधको ने बाहरी परिग्रह छोड़- कर्‌ वैराग्य धारण किया है, उनमे से करई न्यूनाधिक रूप से श्रान्तरिक परिग्रहसे ग्रस्त है । उन्होने बाहरी संसार छोडा है पर भीतर का संसार श्रधिक विस्तृत सौर प्रगाढ बना है, उसी का परिणाम है साम्प्रदायिक ,विद्व ष, धर्म के नाम पर युद्ध, हठाग्रह, श्रातकवाद । (१४ )




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