हिन्दुस्तानी त्रैमासिक | Hindustani Traimasik

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Hindustani Traimasik by श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao

Add Infomation AboutBalkrishna Rao

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१६ म्द्स्तानां शाप पूछ उतना महत्वपूर्ण कभी भी किसी के लिए नहीं रहा हैं « जार इसी वात प्र टिया जाता रहा है कि हमारी जिजासा इस सम्बन्ध में किस कोटि की हैं तथा हमें हमार माध्यम उसके लिए किनना पुप्ट झ्रदुभत्र होता है । विज्ञान भी कसी अन्तिम रूप से नहीं कह पाया है कि धर्म घोर ददांन को इस सम्बन्ध की खोजें या. उपलब्धियां व्यर्थ हैं सार जान की ये माध्यम अस्तिस रूप से मिरथंक हो चुके हैं । यह प्रन वाद है कि झाज विजान को प्राधान्य हैं, लेकिन यह वैज्ञानिको की नहीं बल्कि हमारी भूक दमी, यद्वि देम सानि के माध्यम को ही नतः मान बैत | यी भूल घर्म के क्षेत्र में हुई है कि धर्म ईश्वर मान लिश मधा श्रीर्‌ उमक्षा नतीजा भी हम सव जान्‌ द्रं} जत्र कमी मानवीयं प्रजाते श्रपनी प्राप्ति में साश्यम की सीमा अ्रनुभत्र की सौर उसे पनुपयुक्त पाया तभी उसने उस त्याग विदा, च्छु वहु कस का ऋषि रहा हो रथव राज कतं बेजानिक | नैसे आधुनिकता को नैकर एक श्रम्‌, याततादसणा की सवीसता के साथ प्राय: जुदा मिलता है; इसलिये यह कहना ग्रायययक है कि गरिव्रिण की नमीनता को सोम झाभुविकता नहीं है । ब्राघुनिकना बह युगद्रष्टि दै जौ याच्च होते हुए भी विकासधील होती है । साकवित आर विकासमानता, एक-दूसरे को. काटमेबाली सेवाएँ ने टोकर परिपू है, सत्य की समग्रता को सम्पर्क झस में व्यवस्थित करती हैं । उदाहरण के लिए हम देखते है कि कभी झाग का आविष्कार हुआ था झ्ौर कालक्रम में उसी झाग से बिजली का आभिकार हुआ । यहु ठीक हैं कि इस बिजली के आविष्कार के लिए ऑोर भी नह्वों की देना परग्वा गथा तथा उसके लिए योग्य पाया गया; पर बयां सांग शोर बिजली विरोधी है साबारण दृष्टि से ये ने केवल पृथक ही दीखती है बल्कि कईइयीं को विरोधी मो लगती होगी । हमें यह नहीं भूल जाना होगा कि साहित्य भी किसी मोमा वक एक माध्यमं है । हमे झपने माध्यम को पुप्ट करने के लिए अपने स्रोसों, खनिजों की अनवरत खोजन्बीन करते रहना चाहिए । घमं श्रौर दक्षन जिय प्रकार भ्रसुर्त के द्ारा अपनी खोज करने रहे था जिस प्रकार विज्ञान धातुश्रा झीर तत्वों के युग्ास्मक एवं क्रियात्मक स्सुन्णक्ति मी खोज में निग्न्नर र रहः दै उसी प्रकार हुमे सानव-मने पर होसे दाल सभी पास-प्रतिघान एवं उनके मम्पुर्ण सत्दर्भों को देखना चाहिए । इसीलिए माव्य किमी ग्रन्थं सत्र को मीमा को नही स्वीकारता । बहू तो उस सामबीय तसत्र का सहारा लेना है जो कि समस्त कानों से व्याप्त है, जो कि सतना ही नवीन है जितना कि दाइवत है । इसीलिए साहिस्यफार से जन भी किसी भी प्रकार की सीमारेखा स्वीकारी है, उसमें अपने पैरों पर कुल्हाड़ी हो सारी है । साहित्यकार अस्य क्षेत्रों की उपलब्धियों का सहारा ले सकता है, उनसे लाभ भी दये चकन है, लेकिन केबल उनका ही नहीं हो सकता है । इसी प्रथं मे तथा इसी उच्च स्तर की सेखकीम सवेदा को परिशु स्वमंभू कहा गया है, ने कि किसी शरीर प्रकार की संवेदना को । परिवर्तन का स्थूल स्वरूप सामाजिक, श्राथिक प्रादि योजनाओं के हार देखा जा सकता हैं । श्राज का समाज तथा उसकी रचना कसम के समाज से किस रूप में भिद न्वा यट्ट मिक्रता कैसे हुई श्राति प्रदन यगवोध के अन्तगत भात हैं. समाज को मानि ट्टी समाज कं




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now