राजमुकुट | Rajmukut

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Rajmukut by श्री दुलारेलाल भार्गव - Shree Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम शंक--प्रथम हृश्य ११ [ विक्रम उसे मारने को तरकार उठत हैं, सहसा चार सरदारों के साथ कमचंद आकर राजा का हथ पकड्ते है ] कमं च॑द-सावधान महाराज | निधन, निरपरध और निहत्थी प्रजा के ऊपर यह तलवार ! इसे निदेषि रक्त मे सान- कर फिर कों रक्खोगे ? विक्रम--कौन ! प्रधानमंत्री यह राजसभा नही है, मेरा विलास-भवन है । यहाँ मेरी इच्छा के ऊपर किसी का राज नहीं । मै इन वधिकों को निस्पदेह प्राए-दंड दुगा । कर्मचंद-- तो आपने राजासहासन को भी श्रचल न सममे, इसके नोचे इन्दी के कथे है । कितु सावधान ! यदि राप अपना कर्तव्य मूलते हैः तो मै न भूललंगा । मै इनकी र्ता करूगा । मै इन्दे न मरने दुगा । विक्रम--जो वाधा दगा, बही मेरो तल्लवार का प्रथम लद्य होगा | कर्मचंद-एेसा ही सदी; लो, मायो । यदि तुम्हारी युजानो से शक्ति शौर इस तलवार मे वीच्छता दै, तो मे भी उस युके सिर को अधिक सुकाता हूँ, जिसका प्रत्येक बाल मेवाड़ की सेवा मे पक चुका है । [ सिर झुकाते है । ] विक्रम--से इसके लिये भी प्रस्तुत हूं । [ तरुवार उठातः है। ] 1 तरुवार खींचे जयसिंह का प्रवेश, और पिता की सहायता के छिपे विक्रम के ऊपर जार करना । |




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