हिलोर | Hilor

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Hilor by श्री दुलारेलाल भार्गव - Shree Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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= हिलोर वहाँ ले गया था । सिनेमा देखकर जब हम लोग लौटने लगे तव मेने वही प्रसंग लेड दिया । मैंने पूछा --“हाँ, अब वतलाश्रो, तुमने जो इतने दिनों तक विवाह नहीं किया था, उसका कारण क्या था ?'' उसने कहा--बढ़ी विचित्र बात है कि मेरी प्रियतमा ने भी यही प्रश्न एक दिन मुकसे किया था । और, इसी प्रश्न के कथोपकथन ने उस दिन से मेरी जीवन-धारा को इस ओर सोड़ दिया । आप जानते ही हैं, मैं नियम से फूलबारा घूमने जाता हूँ । सायंकाल तो केवल घूमने की इच्छा से जाता हूँ । पर कभी-कभी सबेरे भी जाया करता हूँ । और सवेरे जाने का अभसिप्राय होता है खुली हवा में बेठकर अध्ययन करना । गत वषे, सर्दी के दिनों में, जब मैं उघर जाया करता था, तत कभी. कभी एक तरुणी भी उधर आ जाती थी । अनेक बार ऐसा हुआ कि वह मेरे निकट से ही टहलती हुई निकल गई । में झपने अध्ययन में इतना लीन रहता कि मुझे उसके आतने- जाने का प्रायः पता ही न चलता था । में भुन्कड़ भी परले दर्जे का हूँ; आप जानते ही हैं । एक दिन एक बेंच पर एक पुस्तक भूल गया। मुझे उस पुस्तक की याद तब श्रा जव स्कूल में पढ़ाने के लिये उसकी आवश्यकता पड़ी । सायंकाल में वहाँ पहुँचकर उमे खोजन लगा । मैंने इधर-उधर बहुत दूढा, पर कहीं भी उसका पता न चला । अंत में जब में निराश होकर वहाँ से चलनः




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