आदर्श - महात्मागण | Adarsh - Mahatmagan

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Adarsh - Mahatmagan by चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा - Chaturvedi Dwarkaprasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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म श्रादशे-महाप्मागण हो कन्याएँ थी । पुत्रो के नाम ये धे--उपूरः निपूर, करकुशडक, उच्कामुख शोर हस्तिशीपंक । कन्याश कै नाम ये धे- शद्धा, पिमला, पिता, जला श्र जली । इन कन्थाश्यो के भरतिरिक खुन्नात कै एक श्रौर पुत्र था, जिसका नाम जन्तु था | वह राज्ञा की पटरानो की सखी की काख से श्र राजा के श्नोरसख से उत्पन्न इश्या था । मखी का नाम था जेन्ती, इसीसे सव लोग उसके पुज को 'जेन्तु' जन्तु कहा करते थे । राजा सजात, पक दिन इस सखी की सखीभाव से ध्राराधना कर रहे थे । जेन्ती भी उनको वासना पूर्ण कर रही थी । इस पर राजा ने प्रसन्न हो कर, जेन्ती से कहा-“तुश्दारा सौजन्य देख कर, दम तुम्हें वर देना चाहते हैं ; श्रतः जा तुम चाहती हो सा चर माँगो ।” राजा के ऐसे वचन सुन; जेन्ती ने मन ही मन षिचारा कि, जव यह राज्ञा न रहेगा , तव इसके प्न्य पच सारा राज्ञ श्रापस में बॉट लेंगे; मेरे पुत्र को कोई पृ देगा भी नहीं; घतः में ऐसा चर मागृ , जिससे मेरा पुत्र हो झ्याध्या की राज- गही पर वे ! इस प्रकार साच विचार कर, जेन्ती ने कटा “प्रहाराज ! यदि श्राप सचमुच मुझे वर देना चाहते हैं, तो प्माप श्रपने पचो पुत्रो के देश-निकाला दे कर, मेरे चेटे को राज्य प्रदान कीजिये ।” महाराज खुजात जेन्ती के मुख से, यह बात सुन बडे दुःखी हुए । किन्तु प्रतिज्ञा भड्ड होने के डर से, किसी प्रकार श्रपनी वात के नट्दीं टाल सके । राजा ने कहा-- '्च्छा ऐसा ही होगा” घ्ौर जेन्ती की मनोकामना पूरी की । राज्ञा फे वरप्रदान को चचां सारे नगर में फैल गयी । राज- पुजो ने श्रपने पिता कौ वात रखने के लिये, राज्य छोड़ कर वन को प्रस्थान क्रिया । राजकुपारो का वन में जाते देख राज्ञधानी-वासी नेक नर उनके साथर लिये) यै लोग श्रनेक




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