दाशरथी - श्रीरामचन्द्र | Dasharathi-shriramchandra

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Dasharathi-shriramchandra by चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा - Chaturvedi Dwarkaprasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीसरा अध्याय | £ श्मपने पुत्र मारीच आर सुबह के साथ महर्षियो के तप मै विन्न डालने लगी । यई देख गाधिनन्द्नं विश्वामित्र अयोध्या गये तथा अपने यज्ञ की रक्षा कराने को महाराज दृशरथ से दूस दिन के लिये श्रीराम को माँगा । यद्यपिवूढ़े वथा पुत्रवरघल्ल महाराज दशरथ, रसो के साथ युद्ध “करने के लिये श्रीराम को भेजना नहीं चाहते थे-तथापि विश्वामित्र के क्रोध के डर से नौर वरिष शुनि क पूरा- मशु से, बित्रश हो इन्द श्रीराम श्रीर्‌ लक्मण को बिश्वामित्र के साथ भेजना पड़ा | तीसरा श्रध्याय ! = सदपि विश्वामित्र दोनो कालकं को साथ ले श्रयोध्या नाडका-थ! । से चले । रास्ते म उन्दने दोनो को श्चुधा-वृष्णा-निवारक ओर स्षवे-सिद्धि-कासी एक महामंत्र ववललाया । फिरते कई एक जनपद्‌, तपोवन, श्रौर मदी पार कर, ताड़का-धरषित १-विश्वामिते चन्द्रयंशीय कान्यङ्ग्नाधिपति रिक की सी पीरकुत्सी के गर्म से ( इन के धेश से ) महाराज गाधि के पुत्र एक बार वशिष्ठ ॐ तपोबल को देल वे पुष हो गये अर जहिं होने की लालसा से अरति कठोर तपस्या कएने लगे । बहुविधि च्ताधारण विर्न फो अतिक्रम कर, अन्त में वे जहार्षि पद को प्राप्त हुए | २-वशिष्ठ का परामशे ( मतास्तर ) योगमाया ठु सीतेति जाता जनकनन्दिनी । विश्वाभित्रोऽपि रामाय लां योनयिुमायतः ॥ ३~वल्ला और अतिवता मंत्र ।




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