रीतिकाव्य संग्रह | Ritikavya Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
438
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ रीतिकाव्य कौ पूवं परम्परा तया माबार-भूनि
रूप में राजाश्रित साहित्य की सुदीर्घ॑ परम्परा तथा उसमें पनपने वाले संस्कृत
के विशाल काव्य-शास्त्र का प्रधान उत्तराधिकार् मध्यप्रदेश की आधुनिक आये-
भाषा हिन्दी को प्राप्त हुआ । बँगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि अन्य
प्रान्तीय भाषाओं के साहित्यो मे रीति-परम्परा का श्ुंखलाबद्ध साहित्य यातो
रचा ही नहीं गया या अपवाद स्वरूप जो कुछ थोड़ा-बहुत रचा गया वह उस
तरह प्रमुख नहीं हो सका जैसा हिन्दी में है । जिस कार में हिन्दी के कवि रीति-.
ग्रंथो की रचना कर रहै थे अन्य भाषाओं के कवि अधिकतर गीतिकाव्य रच
रहै थे या आस्यान-कान्य । रीति-काव्य के सजग अध्येता के लिए इस तथ्य को
ध्यान में रखना आवश्यक है । उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह तथ्य भी स्वाभाविक
ही प्रतीत होता है कि जिस “'गाहासत्तसई' में रीतिकालीन हिन्दी कविता के
बीजांकुर खोजे जाते हैं वह ई० पू० प्रथम दताब्दी के 'हाल” नामक उस प्राकृत-
प्रिय व्यक्ति द्वारा संग्रहीत की गयी थी जो सातवाहन-वंश का एक शक्तिशाली
राजा था ओर जिसका साम्राज्य मध्यदेश के आर-पार फला हुजा था । राजाश्रयं
वस्तुतः रीतिकाव्य का मेष्दंड ह क्योकि वही कवियों के जीवन-यापन का आथिक
आधार ओर यश-अम्युदय की उपलन्धि का मुख्य कारक था । शास्त्रीयता,
शुंगारिकता और अलंकरणप्रियता इत्यादि रीतिकाव्य की जो अन्य मुख्य विशेष-
ताएँ हैं उनके स्वरूप को विकसित और नियोजित करने में भी 'राजाश्रय को
महत्त्वपूर्ण योग रहा है । प्रारंभ में राज-दक्ति का उदय युग की एक गहरी
आवश्यकता के रूप में हुआ । उसमें दायित्व और सामथ्ये की मात्रा विलास को
अपेक्षा अधिक थी । क्रमश: यह राजसी वैभव-विलास एक चरम सीमा पर पहुंच
गया जिसका आभास वाणभट्ट , राजदेखर और श्री हुष॑ के काव्यों से मिलता
है । कालान्तर में विदेशी आक्रमणों से पराभूत होते-होते राजशक्ति की केन्द्रीय
सत्ता छिन्न-भिन्न हो गयी और भाषा-कवियों के लिए राजाश्रय मूलतः: जजर
होकर समस्त भारत के विशार क्षेत्र में यत्र-तत्र विखर गया ।
इस बात का स्पष्ट बोध कराने के किए कि हिन्दी रीतिकाल के आरम्भ
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