जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश भाग - 1 | Jain Sahity Aur Itihas Par Vishad Prakash Bhag - 1

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 जैनसाहित्य और इतिष्ासपर विशद भ्रकाश उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिये मुक्त रहता था, कोई किसीके प्रवेद्में बाघक नहीं होता था--पशुपक्षी तक भी श्राकृष्ट होकर वहाँ पहुंच जाते थे, जाति-पाँति छूताछूत भौर ऊंचनीचका उसमें कोई भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें परिगणित होते थे, भौर उक्त प्रकारके भेदभावकों भुलाकर भापसमें प्रेमके साथ रल-मिलकर बेठते भ्ौर धर्मश्रवण करते थे-- मानों सब एक ही पिताकी संतान हों । इस भादशंसे समवसरणमें भगवान्‌ महावीरकी समता श्रौर उदारता मूतिमती नज़र भ्राती थी भ्रौर वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके प्रत्याचारोसे पीडित थे, जिन्हें कभी धमंश्रवणका, शास्त्रोंके श्रध्ययनका, अपने विकासका भौर उच्चसंस्कृतिको प्राप्त करनेका भ्रवसर ही नहीं मिलता था भ्रथवा जो उसके भ्रधिकारी ही नहीं सममे जाते थे । इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिम प्रवेश करते ही भगवान्‌ महावीरके सामीप्यसे जीवोका वंरभाव दूर हो जाता था; करूर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे प्रौर उनका जाति-विरोघ तक मिट जाताथा। इसीसे सपंको नकुल या मयूरके पास बैठनेमें कोई मय नहीं होता था, चूहा बिना किसी संकोचके बिल्लीका भ्रालिगन करता था, गौ प्रौर सिही मिलकर एक ही नाँदमें जल पीती थीं प्रौर मृग-शावक खुशीसे सिह-शावकके . साथ खेलता था । यह सब महावीरके योगबलका माहात्म्य था । उनके भ्रात्मामें प्रहिसाको पृं प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके संनिकट प्रथवा उनकी उपस्थितिमें किसी- का वर स्थिर नहीं रह सकता था । पतंजलि ऋषिने भी, भ्पने योगद्शनमें, योगके इस माहात्म्यको स्वीकार किया है; जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे प्रकट हैः- छहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग्‌४।३५॥ जनरास्त्रोमें महावीरके विहारसमयादिककी कितनी ही विभूतिरयोका--भति- दयोंका--वणुन किया गया है । परन्तु उन्हें यहाँ पर छोड़ा जाता है। क्योकि स्वामी समन्तभद्रने लिखा है- देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूवयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्‌ ॥१॥ --भझातमीमांसा




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