छायावाद और रहस्यवाद का रहस्य | Chhayavad Aur Rahasyavad Ka Rahasy

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Chhayavad Aur Rahasyavad Ka Rahasy by डॉ० धर्मेन्द्र ब्रम्हचारी शास्त्री - Dr. Dharmendra Brahmchari Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त छायावाद और रहस्यवाद का रहस्य प्राचीन ढंग से भी उतनी ही खी के सथ कह सकता था, उसी को वह्‌ शेखी के मारे, व्यथ ही, विनो फिसी उह श्य के, नवीन दंग से लिखने का व्यथं परिश्रम तथ! असफल चेष्टा करता है । मैं स्पष्ट तथा प्रकट रूप से इसका घर ही विरोध करने का विधार कर रहा हू । भाषा, भाव, रस, शली, कला दथा किसी न्य उदं श्य के लिये नवीनता कोई बुरी बात नर्हा; परंत्‌ विना किसी उद्देश्य के ऐसा करना ढॉंग है, अनचित है, मिभ्या- सिमान है । परंतु पिंगल के पुराने छंदों से भिन्न हो जाने से ही कोई कविता ख़राब नहीं कहीं जा सकती । संस्कृत में, तथा हिंदी में भी, गद्य-काव्य भी होता हीं है। यदि किसी कवि की कविता पिंगल के पद्य न होकर साधारण गद्य की तरह जान पड़े, तो यह कोई दोष नहीं । मैं नीचे श्रीदुलारेलालञी भागेव की एक कविता उद्ध त करता हूं । यह कविता 'कृष्णक्रुमारी-नामक नाटक की भूमिका में लिखी गई है । यदि इसके स्थान पर यह भूमिका गद्य मेँ लिखी गईं होती, तो इसमें ऐसा आनंद कभी न भ्राता, जेसा किं इसके पद्ने से खाता दैः | इसके साथ-दी-साथ इसका अथं तो ऐसा टी सष्ट हे, जसे यह गद्य हो ) परत इस प्रकार ` लिखने से भूमिका का महत्त्व बहुत कुछ बढ गया हे । इसलिये इस प्रकार की नवीनता एक उद्दश्य की पूर्ति करती है । इस प्रकार की नवीनता वांछनीय है, और इसे कोई दोष नहीं कह सकता । उक्त कविता यह है-- “कुष्णुकुमारी काम-कामिनी-सी कमनीया, ` कंन-कली, पुगुण-संयुता सुता प्राणःप्रिय राणा भीमसिह की थी | जयपुर एषं मारवाड़ के भूपति मारी बल-धारी, पाणि-अदण करने को उसका, दोनौ दी लालायित थे ।




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