सतमत का सरभंग सम्प्रदाय | Satmat Ka Sarbhang Sampraday

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Satmat Ka Sarbhang Sampraday by डॉ० धर्मेन्द्र ब्रम्हचारी शास्त्री - Dr. Dharmendra Brahmchari Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ संतमत का स्रभ॑ग-सम्प्रदाय मायां तु प्रकृतिं विद्या्मायिनं त॒ महेश्वरम्‌ | तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिद जगत्‌ ॥२५ उपनिषदौ मे श्रविद्याः शब्द .का भी बाहुल्य से प्रयोग हुआ है, बल्कि जितना अधिक इस शब्द का प्रयोग हुआ है, उतना भायाः का नही । ˆ द श्रच्तरे ब्रह्म परे त्वनन्ते विद्याऽविद्य निहिते यत्र गूढे । त्तरं विद्या ह्यमृतं ठं विद्या ` विच्राऽविद्यं ईशते यस्तु सोऽभ्यः २९ यहाँ विद्या को श्रमत श्र श्रविद्या को क्षर अथवा नश्वर कहा गया है। मुरुडकोपनिषद्‌ में लिखा है कि जो श्रविद्या में अस्त हो जाते हैं, वे श्रहम्मन्य होकर उसी प्रकार संसार में व्यथ॑ चक्कर काटते हैं, जिस प्रकार अन्धो के नेतृत्व में अन्वे ।. वे मूर्ख और अज्ञ होते हुए भी ्रपते को ज्ञानी श्रौर कृतार्थ सममते हैं-- अविद्यायामन्तरे बत्तमानाः स्वय धीराः परि्डितम्मन्यमानाः। जंघन्यमानाः परियन्ति, मूढा त्रन्धेने् नीयमाना यथान्धाः ॥२५ त्रथवा-- श्न्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते |< , किन्दी उपनिषदो मे मायाः शब्द का छल-कपट के साधारण त्रं मे मी प्रयोग ह्रै । यथा-- तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येघु जिह्मममूत न मायाः | जहाँ तक साधना-प्त का संब्रध हे, स्वरसंधान तथा ध्यानयोग-इन.दौ का सतौ ने. व्यापक रूप से विधान किया है। उपनिषदौ मे इनका भी स्पष्ट रूप से उल्लेख है । यथा-- प्राणान्‌ प्रपीडयेह स युक्ते. त्तीशे प्राणे नासिकयोच्छुवसीत | दुष्टाश्वयुक्तमिव बाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्त; ||3° , त्था-- ४ ते भ्यानयोगानुगत्रा श्पश्यन्देवात्मशक्ति . स्वगुरर्निगूढाम्‌ । यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येक. ||, योगावस्था की जौ चरम परिणति, त्र्थात्‌ समाधि है, उसका, विवरण देते हुए तैत्तिरीयो- पनिषद्‌ मँ लिखा है कि उस अवस्था में वाणी निवृत्त हो जाती है, मन मी निवृत्त हो जाता है, साधक निर्मीक हो जाता है श्रौर वह ब्रह्म के श्रानन्द का त्राखादन करता है--. , यतो वाचौ निवत्तन्ते | श्रप्राप्य मनसा सह || त्रानन्द्‌ ब्रह्मणौ विद्वान्‌ | न. बिभेति कुतश्चनेति ॥ऽ२ यह भी बताया गया है कि समाधि अथवा मोक प्राप होने पर जन्म-मरण का चरण, हो जाता है श्र उसकी पुनरावृत्ति,नहीं होती-- | तेषु ब्रह्मलोके पराः परावतो वसन्ति तेषां न, पुत्तराबृत्तिः 133 संतो की ध्यानयोग, समाधि तथा मोक की कल्पना इन्हीं उपनिषद्गत मान्यतात्रों से मिलती-जुलती हैं। उन्होने नाम-मजन तथा जप को भी बहुत महत्व दिया है । बृहदा-




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