वेदना के अंकुर | Vedana Ke Ankur

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Vedana Ke Ankur by भगवती प्रसाद बाजपेयी - Bhagwati Prasad Bajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रखा, “मैडम, आज आप मुझे ही नहीं, अपनी बेटी को, आधुनिक नेत्र चिकित्सालय कै प्रत्येक नेत्र रोगी को यहो तक अपने नैज चिकित्सक डा. वर्मा को भी प्रियदर्शनी लगेगी ।” इतना सुनते ही शाश्वती पूरी तरह से मुस्कराई, फिर दौवारा रुमाल से मह पोते हृए बोतल, “किसी को उल्लू बनाना हो या उसकी झूठी चापलूसी करना हो तो ये दोनों गुर तुमसे सीख ले, चलो गेट के बाहर, मेरी छड़ी उठाकर मुझे दे दो + मैंने सानू से तुरन्त कहा, “जाओ बेटे, अपनी नानी की मंसूरी से आई नई छड़ी, जो बेड के पास कोने में खड़ी है ले आओ।” सानू आनन-फानन छड़ी उठा और अपनी नानी के हाथों में उसे धमाते हुए प्रश्न करने लगा, “नानी जी, मानी जी, आप मेरे वावा की तरह से छड़ी पकड़कर कब से चलने लगी हैं ? पिछली गर्मी की छुट्रिट्यों में मैं जब लखनऊ आया था तब तो आप अपने आप चलती-फिरती थीं।” “सानू, तुम छोटे थे, इसलिए तुमको नहीं पता कि वर्ष 1992 के सितम्बर मास मेँ जब मै बलरामपुर अस्पताल के प्राइवेट वाई न. चार में शरीर कं निर्जलीकरण का उपचार कराने हेतु भर्ती हुई थी, तब रात की इयूटी में तुम्हारी बड़ी मामी की उपस्थिति मे केरल निवासिनी एक काली नर्त कैल्सियम सैण्डोज के इन्जेक्शन के साथ कोई ओर इन्जेक्शन मिलाकर मरे कूल्हे पर लगा रही धी, तो कारण्टर हौ जाने से सारी दवा बाहर निकलकर दाहिने पैर पर टपक पड़ी, मुझे लगा जैसे मेरे नीचे के पैर में किसी ने आग लगा दी, मैं जोर से चिल्ला उठी, नर्स जल्दी से अपनी सुई लेकर वार्ड से बाहर भाग गई, अँप्रेरे में तुम्हारी बड़ी मामी उसे ठीक से पहचान नही सकीं। तीन-चार दिनों में पैर में बड़े-बड़े फंफोले निकल आए, जब वहाँ के सर्जन को मैंने अपना पैर दिखलाया तो उसने कहा “आपके पैर में व्लिस्टर्स ही गए है ।” यह कहकर उसने सिरिंज दारा हरेक फफोले मे भरा जहरीला पानी बाहर निकाला फिर दूसरे दिन सड़ी हुई खाल काटकर पैर में ड्रेसिंग कर दी, पैर की खाल फिर भी सड़मे लगी, उसमें लगातार जलन होने लगी ¦ एक दिन मेरे फेमिली डा. हललीम मुझे अस्पताल में देखने आए, उन्होंने मेरा पैर देखा और कहने लगे “भाभी जी, आपको गैंगरीन हो रही है, इसका तुरन्त आपरेशन करवा डालिए, वर्ना आधा पैर काट दैना पड़ेगा” यह सुनकर मेरे होश उड़ गए। मैं तुम्हारे नाना जी से कहने लगी, “ सुम लाए थे मेरा इलाज करवाने, पर यहाँ की नसों ने तो मेरा पैर ही सत्यानाश कर दिया, अव तौ मैं सारी जिन्दगी एक पैर के सहारे ही चल पाऊँगी' ” यह कहकर शाश्वती की आँखों में आँसू डबडबा आए, वे कार में बैठ गई और सानू उनकी बायीं ओर जम गया । ड्राइवर गाड़ी ड्राइव करने लगा, गर्म हवा के हल्के-हल्के झोके अब भी मेरे ऊपर से शरीर को गर्म कर रहे थे। इसी बीच सानू ने पूछा, “नानी फिर क्‍या हुआ 7?” “फिर क्वा हुआ, चौबे गए थे छब्बे होने, पर रह गए दुबे । यह बलरामपुर 18 - वेदना के अंकुर




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