आधुनिक हिन्दी कविता की स्वच्छन्द धारा | Aadhunik Hindi Kavita Ki Swachchhand Dhara

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Aadhunik Hindi Kavita Ki Swachchhand Dhara by त्रिभुवन सिंह - Tribhuvan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाज की रुचियों में जैसे-जैसे परिवतन होते गये, वैसे ही कविता के स्वरूप और उसके देखने की दृष्टि में भी परिवतन उपस्थित होता गया ! यही कारण है कि आदिकाल में कविता के प्रति जो दृष्टिकोण था, वह भक्ति- काल में नहीं रहा तथा भक्तिकाछ सें जो रहा, वह रीतिकाल में नहीं रह पाया और जो रीतिकाल में था वह आज नहीं रह सका । समसामधिक सान्य- ताओं के अनुसार ही तत्काठीन विद्वान कविता की परिभाषा करते रहे हैं, किन्तु इतना तो स्वीकार करना ही पढ़ेगा कि किसी भी य॒ग सें कविता की रचना निर्देद्य नहीं हृष है । किसी-न-किसी रूप सें हसें कविता में उस समय का समाज झाँकता हुआ अवद्य मिढेगा ! इसके विरोध में यदि चाहें तो लोग कविबर तुलसीदास का सत उद्धत कर सकने है कि-- ५ 0 'कान्ह प्राकृत जन सुन-गाना । धुल ८ य्‌ है कप सर धुन (गख लग पछताना ॥' ४ प न, | किन्तु बात ऐसी नहीं हूं । इस उक्ति को समझने कं च्य हे दवि आर्‌ कदि च 1 मे ४ ~ हग (~ कन्न नछसीादास न श न ग कविता का त्सा का समन्वना हागा । महत्या टखर.दास ज्य (दर कार < (५ य्‌ नि मिलन». लि प त यका अद द्टच रह था {मयि कि मे अपनी स्चनाए कीं वह दन्द साहः देवा को स्वतन्त्रता अक्षुण्ण थी, भरे ही आन्तरिक पार्ट रिच रणचण्डी का नग्न ताण्डव बतसान था | न तो वह बथि ही था = आश्रयदाता की रुचि को उकसा कर सम्मान तथा धथ छाथ करता, और न तो वह समाज ही था कि एेसी प्रदत्तियोंको प्रश्रय दान करता, बल्कि „ॐ >] तलसीदासजी की रचनाएं ऐसे यंग की देन हैं, जिनसे देद की दाडनीतिक बागडोर तुलसी की दृष्टि से विदेशी यवनों के हाथ में थी सौर भारतीय समाज सब प्रकार से परतन्त्र था । यह एक य्रकार को समस्था थी दि किस प्रकार सामाजिक सयांदा आर संस्कृति की रक्षा की जाय । किसी यवन आश्रयदाता की रुचि को अपनी रचना द्वारा उकसाने का अथ था, अपने ही हाथों अपनी संस्कृति आर सभ्यता की जड़ खोदना | दुल्सीदास जी ने प्राकृतजन का प्रयोग ऐसे ही व्यक्तियों के लिये किया है जिनके हाथों हस परतन्त्र थे । जब समाज में कोई ऐसा व्यक्ति सामने रह ही नहीं गया था कि जिसके पीछे हम विश्वास के साथ चल सकते तो सिवाय इसके कि एक्‌ आदद पुरुष की कल्पना की जाती ओर किया ही क्या जा सकता था | टट्सीदास जी की इस उक्ति से स्पष्ट झलकता है कि उस समय देश का नेतृत्व करने- वाला समाज में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था कि जिसकी स्तुति की जाती | स्वच्छन्द वारा <




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