लतिका | Latika

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Latika by दुलारेलाल भार्गव - Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७ ) सत्य दरबार में उसका मूल्य ही क्या हो सकता है ? किंतु कवि का अक्षय धन सदैव सत्य-ज्योति से प्रकाशित सु दर और सगलमय है । अतीत काल का प्रचड गौरव, उसकी श्रीवृद्धि, उसका अरद्धत सोदयं श्राज दिनि नष्ट हा गया है। किंतु कवि की अमर कविताएं आज दिन भी सहृदय मानवो को मुग्ध कर रही है । कवि अपनी कृति द्वारा जिस सुवणं प्रदीप से साहित्य को ज्योतिमय बना जाते हैं--उसकी शात श्रौर समुञ्ज्वल किरणें संसार कै प्रत्येक गृहमे फैली रहती हैं । कवि की आत्मा अनुराग आर श्रावेग का क्षेत्र है । उसके प्राणों की रस लिप्सा स्वाभाविक है; जो रहस्य बस्तु को अम्रत-रूप में प्राप्त करती है । कविता मे जिस चित्र का हम द्शन करते हैं, उसमें एक अत्यत सरल, पवित्र श्रौर तीच्ण सत्य का समुद्र उमडता दिसाइ देता है । सत्य की यह्‌ मूर्तिं असु दर होकर मी सु दर हे । कवींद्र रवींद्र कहते हैं--“'कवि जब सत्य की उपलब्धि कर ते हैं, तब समभते हैं, सत्य का प्रकाश सहज ही सु दर है ।” महद्दाकवि की पवित्र कल्पना सदैव स्वतन्र है । जिस वस्तु को शाख नाग पाश में मजवूती से जकडे रहता है, कवि-कल्पना स्षण-मात्र मे दी उसके विकट बधर्नो का लिन्न भिन्न कर डालती हे । कवि को कुशलता उसकी कल्पना मे दी प्रकट होती है । जो वस्तु कवि हृदय कौ स्पश कर लेती है, सहज दी म उसका उद्धार हो जाता है । कवि स्वय उसी वस्तुका खूप धारणक र तन्मय हो जाता है। यदी उसके भावोंकी सृष्टि है। इस




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