अनेकान्त | Anekant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
289
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रागम-वुस्य प्रभ्थो की प्रामारिकता का भूल्पांकम
निरपेक्षता की शक्ति को गुण माना जाय या दीष--यह
विचारणीय है । एक भर हमें अज्ञात कुलशीलस्प, वासों
देयो न कस्यचित्' की सूक्ति पढ़ाई जाती है, दूसरी ओर
हमे ऐसे ही सभी भाचार्यों को प्रमाण मानने की धारणा
दी जाती है । यह अर ऐसी ही अन्य परस्पर-विरोधी
मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है । उदाहरणार्थे,
शास्त्री द्वारा समीक्षित विभिन्न आधायाँ के काल-विचार
के आधार पर प्राय: सभी प्राचीन आचाये समसामधिक
सिद्ध होते है :
१. गणधर ११४६० प° - त
२. धरसेन ५०-१०० ई० प्रथमसदी सोौराष्टू, महाराष्ट
३. पष्पदत ६०-१०६ ई० ,, श्राध्र, महाराष्ट
४. भूतर्बा4 ७६-१३६ ई० १-२ सदी भाघ्र
५. कुदकूद ,८१-१६५ ६० १-२ सदी. तमिलनाडु
६. उमास्वापि १००-१८० ई २ सदी +»
७. वदटुकेर -- प्रथम सदी +)
८. शिवायं -- <+ मधुरा
६. स्वामिकूमार -- २-३ सदी... गुजरात
(कातिकेय)
इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदत भौर भूनबलि का पूर्वा-
पर्थं प्रौर प्तमय तो पर्याप्त यथ।थेता से अनुमानित होता
है। पर कुंदकंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त
चर्चायें मिलती है । यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही
मानें, तो इनमे से कोई भी आचायें दूसरी सदी का पूर्वे-
वर्ती नहीं हो सकता (६८३-५२७०१५६ ई०) । इन्हे
गुरुशिष्य मातने मे भी अनेक बाधक तक है ;
(1) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम
कुंदकूंद से भिन्न है ।
(५) उमास्वाति ने वट्केर के पंचाचार और शिवाय
के चतुराचार को सम्यक् रत्नश्रय में परिवधित किया ।
उन्होंने तप और वीर्य को चरित्र मे ही अन्तर्भूत माना |
() कुंदकुंद के एकार्थी पांच अस्तिकाय. छह द्रव्य,
सात तत्व और नौ पदार्थों की विविधा को दूर कर उन्होंने
सात तत्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया।
(1४) उमास्वाति ने अद्वेतबाद या निश्वय-व्यवहार
ईष्ट कौ वरीप्रता पद् मह्यस्य भाव रख !
१४
(४) उमास्वानिने ज्ञानको प्रमाण बनाकर जैन
विद्यो मे सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया ।
((४।) उमास्वाति ने श्रौवकाचार के अन्तर्गत ग्यारह
प्रतिभाभो पर मौन रखा । संभवतः इसमे उन्हें पुनरावृत्ति
लगी हो)
शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है । परंतु लगता
है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने तत्कालीन
समग्र साहित्य म व्याप्त चर्थाओ की विविधता देखकर
अपना स्वय का मत वनाया था । यही दृष्टिकोण वर्तेंमान
में अपेक्षित है ।
उमास्वाति के समान अन्य आचायों ने भी सामधिक
समस्याओ के समाधान की दृष्टि से परंपरागत मान्यताओं
में संयोजन एवं परिवध॑न आदि किये है । इसलिये धार्मिक
ग्रथो में प्रतिप।दित सिद्धांत, चचयिं या. मान्यताये अपरि-
वतंनीय है, एेमो मान्यता तकं सगत नही लगती । विभिन्न
यूगो के ग्रंथों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिसादि पांच
नीतिगत सिद्धांतों की परंपरा भी महावीर-युग से ही चली
है । इसके पूवे भगवान् रिषभ की त्रियाम (समत्व, सत्य
स्वायत्तता) एवं प,ए्वेनाध की चतुर्याम परपरा भी |?
महावीर ने ही अचैलकत्व तो प्रतिष्ठित त्रिया । महावीर
ने युगके अनुरूप अनेक परिवधेन कर परंपरा को व्यापक
बनाया । व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परंपरापोषण
ही माना जाना चाहिये । प््ययि आज के अनक विद्वान् इस
निष्कषे से समत नहीं प्रतीत होते पर परपराये तो परि-
वधित भौर पिकर्सित होकर ही जीवन्त रहती है । वस्तुतः
देखा जाय, ता जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली
कां प्रयग करते है, उसका विद्वान् जगत के लिये कोई अर्थ
ही नहीं है । वीसवी सदी मे इस शब्द की सही परिभाषा
देना ही कठिन है ? भ० रिषभ को मूल माता जाय या
भ० महावीर को ? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वय यह प्रदर्शित
करती है कि यह ब्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार
है । हा बीसवी सदी के कुछ लेखक! समन्वय की थोड़ी
बहुत सभावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं ।
सेद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी
स्वीकृति
उपरोक्त तथां अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है
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