बापू | Bapu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लोभ-दस्यु लट-पाट करके वख््र-घन छे गया है हरके । कितने युगा कौ घौ भूतरान ! जानं कव होगा प्रात ? दीखता अकाय ही विकट ध्वान्त |! नूतन शताब्द-रिष्यु-देतु व उभी असन्त । हो न अरे सन्तति का सववंस्वान्त ! रात्रि चढ़ती हो प्रति पल हैं । रात्रि कट जाय तब वह भी सफल हूं ,--- पाकर प्रकाडामणि) हायरी, प्रकादामणि !--कौन स्वनि घारण किये हद तुफे अन्तर सें ; पुष्ठकर उर के अजस्र दुग्घ-सर में ? बहुत युर्गों के बाद; पूर्व-पुण्यस्थल की आशा अहा ! आचा वह ऋर्को । देखो तो, सुनो तो, धेयं धरके ‰




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