नारीधर्मविचार | Naaridharmavichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथस भाग । ७ नाम से उन के नाम भसिद्ध होते थे । नेसे कि-ङुन्तीपु् युपिष्टिर | कोाट्यापुज रामचन्द्र, सुमिनापुत्र छक्ष्मण; देवकीनन्दन कृष्णादि पुकारे जते ये । विदुषी मातायं भयम दी से संस्कृत वोरना सिखा देती थीं। मे ने | गये गुजरे समयमे भी दो एक वच्चो को पांच छः वपे की आयुं | धारामवाह संस्कृत वोलते देख अचम्भित होकर पूछा, पता लगा कि | यदद सब माताओं की शिक्षा का कारण है आज सारा संसार पुकार रहा | ह क्रि अमुक की ( मदरटग--मादरी जवान ) माठभाषा अमुक है कोई | नहीं कहता कि अमुक की फादरटंग या पिदरी जवान या पितृभापा क्या | सक्ता परन्तु माता के विद्वान्‌ दने से बोर सक्ता है इस खिये सव से अधिक | विद्या की आवश्यकता माता को है । विद्या शब्दद्दी खी लिंग है इसी मकार | गायत्री ओर थी ( बुद्धि ) भी--ख़ियों के वास्ते विशेषता मकट कर रहे हैं | “ मातदेवो भव पितदेवो भव आचाय देवो भव ” में माता का शब्द मथम | सी हेतु ह, जिन्द ने प्राचीन इतिहास नहीं देखे जिनकी स्वाभाविक नियमों पर दृष्टि नहीं, वे कह देते हैं कि--( यके गुफ्त कसरा जने वद मुवाद ) | जो उसी समा तक उचित है कि यादि दुष्ट खी न हो तो पुरुष भी दुष्ट नहीं दोना चाहिये । आगे द्वितीय पद में कहते हूं ( दिगर गुप्त अन्दर | जहां जन मवाद ) अथात्‌ संसार में खी ही नहीं होनी चाहिये । मैं विनय | पूबेक ऐसे मद्दाशयों से पूछता हूँ कि यदि संसार में खी ही भ होती तो| क्या आप निसी शुद्ध और पवित्र मूर्तियां इृष्टिगोचर हो सक्ती थीं ओर | आप अपनी माता कै सारे उपश्रो को भुखार एसे ृतघ्नी वन इस ! वाक्य उच्चारण के समथेक वन सक्तं थे ! आप यदि माचीन समय की | सियो की व्यवस्था ओर कत्तन्यता इतिहासो ओर उपनिषदो में देखेंगे तो | ब्रात दोगा कि पुरुपों की अपेक्षा अधिक शुभाचारिणी और लज्जावती | ख़ियां थीं ओर उन्हों ने पुरुपों से वद़ कर काम किये हैं । क्या आज | सम्पूण मनुष्य सर्वं गुणो से सम्पन्न दही ह । आन पुरुष॒ वाहर निकल | कर पढ़ लिखकर दूरदर्शक हो गये । ख़ियां गृह में रहने से मूर्ख, विद्या से शून्य रह कर अधेपशु ( नीमवहशी ) वन गईं ! इश्वरीय नियम है कि




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