व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र | Vyakhyapragyapti Sutra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
572
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्पादकीय
[रथम सस्करण ते]
मगवतीसुत्र : एकादशांगी का उत्तमांग
जैन-आगम-साहित्य मे समस्त जैनसिद्धान्तो के मूल स्रोत बारह अगशास्त्र माने जाते है (जो 'हादशांगी”
के नाम से अतीव प्रचलित हैं। इन बारह अगशास्त्रो में 'दृष्टिवाद' नामक अन्तिम अगशास्त्र विच्छिन्न हो जाने
के कारण भ्ब जैनसाहित्य के भडार मे एकादश अगशास्त्र ही वतंमान में उपलब्ध है) ये अग 'एकादशांगी' अथवा
गणिपिटक' के नामसे विश्रुत हैं ।
जो भी हो, बतंमान काल में उपलब्ध ग्यारह अगशास्तरो मे भगवती अथवा “व्याख्याप्रशप्ति सूत्र जैन
भागमो बा उत्तमाग माना जाता है। एक तरह से समस्त उपलब्ध भागमोमे भगवती सूत्र सर्वोच्चस्थानीय एव
विशालकाय शस्त्रहै। द्वादशागी मे व्याख्यप्रज्ञप्ति पचम अगशास्व है, जो गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा प्रचित है ।
नामकरण और महत्ता
वीतराग सर्वज्ञ प्रभ की वाणी अद्भुत ज्ञाननिधि से परिपूर्ण है । जिस शास्त्रराज में अनन्तलब्धिनिधान
गणघर गुर श्रीदन््रभूति गौतम तथा प्रसगवश अन्य श्रमणो झादि द्वारा पूछे गए ३६,००० प्रश्नो का श्रमण
शिरोमणि भगवान् महावीर के श्रीमुख से दिये गये उत्तरो का सकलन-सप्रह है, उसके प्रति जनमासन मे श्रद्धा
भक्ति और पूज्यता होना स्वाभाविक है । वीतरागप्रभु की वाणी में समग्र जीवन को पावन एवं परिवर्तित करने
का अद्भुत सामथ्यं है, वह एक प्रकार से भागवती शक्ति दै, इसी कारण जब भी व्याख्याप्रजप्ति का बाचन होता
है तब गणधर भगवान् श्रीगौतमस्वामी को सम्बोधित करके जिनेश्वर भगवान् महावीर प्रभु द्वारा व्यक्त किये गए
उद्गारो को सुनते ही भावुक भक्तो का मन-मनूर श्वद्धा-भक्ति से गद्गद होकर नाच उठता है । श्रद्धालु धक्तगण
इस शास्त्र के श्रवण को जीवन का गपूवं अलभ्य लाभ मानते हैँ । फलत अन्य अगो की श्रयेक्षा विशाल एव
अधिक पूज्य होने के कारण व्याद्याप्रजञप्ति के पूवं 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त होने लगा भ्रौर शताधिक वर्षों से तो
भगवती शब्द विशेषण न रह् कर स्वतत्र नाम हो गया है । वर्तमान में व्याख्याभ्रज्ञप्ति की भ्रपेक्षा ' भगवती' नाम
ही अधिक प्रचलित है । वतंमान 'व्याहयाप्रज्षप्ति ' का प्राकृतभाषा 'विथाहपण्णसि' नाम है । कह्ीं-कही इसका नाम
“विवाहपण्णत्ति' या 'विबाहपण्णत्ति' भी मिलता है । किन्तु वृत्तिकार आचा्यंश्री अभयदेव सूरि ने “वियाहपण्णत्ति'
नाम को ही प्रामाणिक एव प्रतिष्ठित माना है। इसी के तीन सस्कृतरूपान्तर सान कर इनका भिन्न-भिन्न प्रकार
से अर्थ किया है--
ब्याह्याप्रशप्ति--गौनमादि शिष्यो को उनके द्वारा पचे गए प्रश्नो के उत्तर मे भगवान् महावीर के विविध
रकार से कथन का समग्रतया विशद (प्रकृष्ट) निरूपण जिस ग्रन्थ मे हो, अथवा जिस शास्त्र मे विविधरूप से
भगवान् के कथन का प्रज्ञापन--प्रह्पण किया गया हो ।
ध्याद्या-प्रशाप्ति--व्याख्या करने की प्रज्ञा (बुद्धिकुशलता) से प्राप्त होने वाला अथवा व्याख्या करने में
रशन (पटु) भगवान् से गणधर को जिस ग्रन्थ ज्ञान की प्राप्ति हो, वह श्रुतविशेष ।
{ १५।
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