लोमहर्षिणी | Lomharshini

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Lomharshini by कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - Kanaiyalal Maneklal Munshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुनियों में श्रेष्ठ \ भागौ बनने श्राति है ! विभिन्न प्रसङ्गो ,के कारण इन तीनों जातियों का बेमनस्य बढ़ता दी जाता था । तृत्सुझ्रों के प्रतिष्ठित बढ़े-बूद़े समकते थे कि इस समय सृत्सुभो के राजा सुदास चुपचाप किसी उधेव-बुन में लगे हुए हैं । भरतों झौर नगुआओ की सेनाश्रों के संयुक्त सेनापति भागंघदूद्ध कवि चायमान तीनों जातियों की ऐसी मैत्री को श्रस्वाभाविक मानते थे । ऋषि जमदग्नि युद्ध-प्रेमी नहीं थे,तो भी अपने पिता क्चीक की ज्वलन्त कीर्ति सुरक्षित रखने के लिए वे भ्गुओ को लढ़ाकू बनाने में लगे थे । मध्यरात्रि व्यतीत हुई थी । राजा सुदास द्वारा रक्षिंत तृत्सुआम गाद्‌ निद्वा मे सो रहा था | राजा सुदास के काका के पुत्र श्रौर तृत्सुझों के सेनापति ह्यंश्च का महाल्लय भी इस प्रकार निःशब्द पढ़ा था मानों सौ रहा हो । दें समय इम महालय के उद्यान क बादे के पास दो पुरुष स्तढे थे । बाड़े के पीछे से पक्षी का शब्द सुनाई दिया । बादर खडे हुए दो पुरुषों मे से एक ने भी बेला ही शब्द किया । तुरंत ही बहे के भीतर से पहले एक स्त्री श्रा उसने चारों श्रोर देखा और पुरुषों को पहचान कर 'घोरे से शब्द किया । उत्तर में बाढ़े के भीतर बहुमूल्य ऊन के वस्त्र धारण किये हुए एक स्त्री निकली । दो पुरुषों में से छोटे ने एकदम आगे बढ़कर इस स्त्री का श्रालिङ्गन करके चुम्बन लिया ! शुक्र के तारे के प्रकाश में भी दोनों के रक़ का झन्तर स्पष्ट दिखाई दे रहा था । स्त्री हिम के समान श्वेत वेरं कौ धी,पुरष का रङ्ग श्याम था । एक अर्क्या थी, दूसरा दास था। दाध-में-हाथ ढाल ये दोनो स्त्री-पुरुष पीछे के गुप्त द्वार से




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