काला पुरोहित | Kaalaa Purohit

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Kaalaa Purohit by अमृतलाल नागर - Amritlal Nagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काला पुरोहित का उपक्रम करती है और वह उसे देखकर । ऐसा क्यों होता है ? द्ष से नहीं मीठी भिड़कियों के भय से । वे बचना चाहती हैं परन्तु बचती नहीं । वे मिलती हैं लजा की लालिमा से रंजित कपोलों पर बीती हुई घड़ियों की भावनाओं का भार लादे हुए भमिमकती हुई और फिर अपने अभिसार की कहानी सुनाकर इठ- लाती हुईं चल देती हैं मुस्करा कर । टीनिया ने अरुण भावनाओं को बिछाकर कोवरिन से कहा-- अब सोना चाहिए --शर सरदी भी है । कोवरिन्‌ का हाथ पने हाथ में लेकर चलती हुई वह कह रही थी--हमारा जीवन --उसने हंसते हुए कहा था--उद्यान बस केवल उद्यान के लिये ही तो बना है । हमारे चारों ओर का वातावरण बस केवल उद्यान उद्यान उद्यान --सेव के पेड़ों और अन्य फल-फूल-पत्तों के अतिरिक्त हम और किसी की कल्पना भी नहीं कर सकते ।.......में किसी समय अपनी वतमसान परिस्थितियों से उलभकर उनसे ऊब उठती हूँ . . .. . .में कभी-कभी अपने को परिवर्तित अवस्था में देखने की सजीव श्याकाझ्टा में भुला देती हूँ ।. . .मुभे स्मरण है जब तुम हम लोगों से मिलने के लिए आया करते थे ---तब मकान सहसा मुभमें चमत्कृत उन्मत्त भावनाओं को बटोरकर वातावरण में प्राण-सा डाल जाता था जेसे किसी ने सुसज्जित प्रकोप्ठ का आवरण हटा दिया हो ।. . .. . . तब में एक छोटी-सी लड़की थी ।. . .. . .. . .परन्तु में समभती थी. . .. . . टॉनिया कुछ देर तक निरंतर बोलती रही ओर उसके एक-एक ७




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