गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का | Grahast Ko Bhi Adhikar Hai Dharm Karane Ka
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
234
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धर्म-प्रवर्तन
आदिकाल मेँ मनुष्य वैयक्तिक जीवन जीता रहा है। तब तक समाज का
निर्माण नहीं हुआ था। न गांव थे, न नगर। न राज्य था और न कोई
शासन-विधान । शिक्षा-दीक्षा का कोई प्रश्न ही नहीं था। न कृषि थी, न
व्यवसाय | न अर्जन था, न सम्पदा का संचय | न वस्त्र-निर्माण की कला
ज्ञात थी और न कोई मकान बनाना जानता था। न कोई धर्म था, न कोई
सम्प्रदाय |
उस युग के लोग येन-केन-प्रकारिण अपनी जीविका चलाते ओर
प्राकृतिक वस्तुओं से जीवन का निर्वाह करते |
समय का रथ आगे बढ़ा। मनुष्य ने सामाजिक जीवन जीना शुरू
किया | गांव वसे | कुल-शासन की पद्धति चालू हुई। कुछ विधि-विधान
बना। कुल-शासक नियुक्त हुए। शासन-तन्त्र का सूत्रपात हो गया। इस
घटना से दो निष्पत्तियां हुई-
१. मनुष्य ने सीमित अर्थ मे अपनी स्वतन्त्रता छोड़ी, एक सीमा तक
परतन्त्रता का वरण किया |
२. उसके बदले में दूसरों का सहयोग प्राप्त किया |
विकास की इस शृंखला मेँ कृषि, व्यवसाय, राजनीति, शिक्षा आदि
का प्रारम्भ ओर विकास होता गया | क्रमश : आवादी भी वदती गयी । जैसे-
ध आवादी बढ़ी, वैसे-वैसे वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा और जैसे-जैसे वस्तुएं
, वैसे-वैसे उनके संग्रह की भावना भी बढ़ती गयी | इस स्थिति में सहज
धर्म या सहज नियन्त्रण की श्रृंखला अनायास शिथिल हो गयी। उस समय
धर्म-प्रवर्तन की आवश्यकता का अनुभव होने लगा |
गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का ३
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