वांग्य विमर्श | Vangya Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य श्फू अशालियाँ प्रवृत्तियों या शैलियाँ का सम्यक्‌ ज्ञान नददीं होता आँखे नहीं खुलती । इसी से जो शाख्र का अध्ययन किए बिना ही कवि-कमे करता है वह अंध कहा जाता है । नेत्रों के रहने पर विषय का श्रहण जैसी सर- लता और सूदमता से हो सकता है अंधा द्ोने पर नहीँ। अत शास्त्र का अध्ययन सरलता-पूवंक विषय की सूदमता और शुद्धता की उप- लब्धि के लिए है पांदित्य-प्रदर्शन के लिए नहीं। कुछ कवियाँ के पांडित्य-प्रदर्शन को लक्ष्य कर जो लोग शास्त्र से भड़कने लगे हैं था शास्त्र को गूढ़ कहकर उससे बिरत होना चाहते हैं वे बुध नहीँ कहे जा सकते । शास्त्र से विमुख होने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि समध कवियोँ मैं भी कहीँ कहीँ भद्दी अशुद्धियाँ दिखाई देती हैं । शास्त्रानुशीलन के ही अंतर्गत काव्य-परंपरा का अध्ययन भी आता है। काव्य-परंपरा का अध्ययन भी अपनी पहचान छोर निर्माण की सुगमता के लिए है। परंपरा को छोड़कर चलने से रचना बेमेल होने लगती है। आज दिन हिंदी के कई नवीन कवियों की रचना मेँ यही लक्षितही रहा है । काव्य-रचना करना बढ़ी हुई नदी का पार करना हैं । परंपरा द्वारा वैसी ही सुगमता होती हे जैसी संतुबंध द्वारा नदी पार करने मैं । तुलसीदास जी कहते हैं-- अति अपार जे सरितबर जौ चप सेतु कराहि। _ . चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु खम पारहि जाहि ॥ जो पुल से नहीं जानां चाहता बद्द पार जाने की इच्छा होते हुए भी या तो नदी मैँ उतरने का साहस ही न करेगा और यदि कहीं साइस किया भी तो बहते बहते न जाने कहाँ जा लगेगा । साध्य तक पहुँचना उसके लिए कठिन होगा लुटिया डूबने की झाशंका भी साथ लगी रहेगी । हिंदी की कुछ नवीन रचनाएँ परंपरा से पराड्मुख होकर इसी से लक््यहदीन दिखाई देती है । न अब अभ्यास पर आइए । ाभ्यास के बिना कविता हो तो सकती हैशकिंतु व्यवस्थित नहीं हो सकती । यही कारण है कि संस्कृत और हिंदी के पुरांने कवि गुरुओं के यहाँ अभ्यास किया करत थे । उदूं के




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