महापुराण भाग-1 | Mahapuran Bhag-1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
126 MB
कुल पष्ठ :
745
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्ताच्ना १५९
“पुस्तक श्रादिपुराण जीका, भटारकराजेन््रकोतिजीको दिया, लखनञमे ठाक्रदासकी पतोह ललित-
प्रसादको बेटी ने! मिती साघवदी” ” **' ''सं० १९०१४ के साल में ?
इस लेखसे लेखनकाल स्पष्ट नहीं होता, इसका सांकेतिक नाम “अर हैं ।
५-इः प्रति
यह प्रति मारवाड़ी मन्दिर शक्कर बाजार इन्दौरके पं० खेसचन्द्र दास्त्रीके सौजन्यसे प्राप्त हुई
हं । कहीं कहीं पाऽ्व॑मे चारों शरोर उपयोगी टिष्पण दिये गये हं । पत्र-संख्या ५००, पडक्ति-संख्या
प्रतिपत्र ११ श्रौर श्रक्षरसंख्या प्रतिपडविति २५ से ३८ तक हुं । शरक्षर सुबाच्य ह, दक्षा ्रच्छी है, लिखनेका
संवत् नहीं हे, श्रादि श्रन्तमे कुष्ठ लेख नहीं ह । प्रथम पत्र जीर्णं होनेके कारण दूसरा लिखकर लगाया
गया हं । प्रायः शुद्ध है । इन्दौरसे प्राप्त होनेके कारण इसका सांकेतिक नाम इ है ।
दे-'सः प्रति
यहु प्रति एज्य बाबा १०५ क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद्जी वर्णी की सत्कृपासे उम्हींकं सरस्वतीभवनसे
प्रप्त हुई हं । लिखावट श्रत्यम्त प्राचीन ह, पड़ी मात्राएं हं जिससे श्राधुनिक वाचकोको श्रभ्यास किये
बिना बाचनेसें कठिनाई जाती हैं। जगह जगह प्राकरणिक वित्रोंस सजी हुई है। उत्तरार्धे चित्र नहीं
बनाये जा सके हें श्रत: चित्रोंके लिये खाली स्थान छोड़े गये हें । कितने ही चित्र बड़े सुन्दर हैं। पत्र
संख्या ३६४ हं, दशा भ्रच्छी है, श्रादि भ्रन्तमे कुठ लेख नहीं है । पृज्य वर्णीजी को यह् प्रति बनारसमं
किसी सज्जन द्वारा मटकी गई थी एसा उनके कहुनेसे मालूम हृश्रा । सागरसे प्राप्त होनेके कारण
इसका सांकेतिक नाम स' ह ।
७-'द” पति
यह प्रति पन्नालाल जौ श्रग्रवाल दिल्लीको कृपासे प्राप्त हुई । इससे मूल दलोकोंके साथ ही
ललितकीति भटारक कृत संस्कृत टीका दो हुई है । पत्र -संख्या ८६८ है, प्रतिपत्र पंक्तियां १२ श्र प्रति-
पड़िक्त भ्रक्षर-संख्या ५० से ५२ तक हू। लेखन काल अज्ञात हे। श्रन्त में टीकाकार की प्रदस्ति दो
हुई हे जिससे टीका निर्माणका काल विदित होता हे । प्रदास्ति इस प्रकार है-
वषं सागरनागभोगिकूमिते मागं च मासेऽसिते
पक्षे पक्षतिसत्तिथौ रविदिने टीका कृतेयं वय ।
काष्टासंववरे च माथुरवर गच्छं गणो पुष्करे
देवः श्रीजगदादिकीतिरभवत् स्यातो जितात्मा महान् ।
तच्छिष्येण च मन्दतान्वितधिया भट्टारक्त्वं यता
शम्भरं ललितादिकीत्यंभिधया स्यतेन लोकं ध्रुवम् ।
राजश्रीजिनसनभाषितमहा कान्यस्य भक्त्या मया
संशोध्यैव सुपठ्तां बुधजनः क्षान्ति विधायादरात् ।“
दिल्लीसे प्राप्त होनेके कारण इसका सांकेतिक नाम 'द' हे ।
८-2' प्रति
यह् प्रति भी पं० भुजबलिजी शास्त्रीके सौजन्य दारा मू्डबिद्रीस प्राप्त हुई थी । इसमे ताडपन्न पर
मल शलोको के नम्बर देकर संस्कृतम रिप्पण दिय गयेहं। प्रकत प्रस्थमें इलोको के नीचे जो टिप्पण
दिये गये हं वे इसी प्रतिसे लिये गये हं । इस टिप्पणमें श्नीमते सकलक्ञानसाम्ाज्यपदमीयुष । धम-
चक्रभूते भत्रे नमः संसारभीमुषे इस आद्य इलोक के विविधं श्रयं किये हूं जिनमेंसे कुछका उल्लेख हिन्दी
भ्रनुवादमं करिया गया हं । इसकी लिपि कर्णाटक लिपि हं । इस प्रतिका सकितिक नाम 'ट' ह । टिष्पण-
कत्तकि नामका पता नहीं चलता हं ।
<~ कः प्रति
यहु प्रति भौ टिप्पणकौ प्रति हं । इसकी प्राप्ति जन सिद्धास्तभवनश्रारासे हई हं । ताडपत्रपर
कर्णाटक लिपिं टिप्पण दिये गये हं । इसमे प्रथम ईलोकका 'ट^ प्रतिके समान विस्तृत टिप्पण नहीं है ।
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