पुनश्च | Punashcha

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Punashcha by हरिचरण शर्मा - Haricharan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुनश्च /4 स्थान-स्थान पर खूनी तालाब हैं, गंदे नाले हैं, कूडे के ढेर है, धति के ववन्डर हैं गौर कितने ही भयंकर संदर्भ है । यह सारा परिवेश श्रभिघात्मक कम ग्रौर प्रतीकात्सक ज्यादा है । इससे कवि ने जीवन व्यापी भयंकरताओओं का परिचय दिया है । मनुप्य को उसकी असलियत में पेश किया है । वातावररण के प्रति इतनी सचेतन सजनता ग्रौर उसका इतना सही व्यौरा नये कवियों मे सवके यहां नहीं मिलना दे । श्राज हमारी सभ्यता जिस संकट से गुजर रही है उससे मनुष्य मात्र का: मानवता का, विनाश श्रवश्यम्भावी है । शायद इसी विचार से पीड़ित हो मुक्तिबोघ के मन में ये अ्नुभूतियाँ जगी हों कि श्रादमी भी इन्हें जान ले तो मुमकिन है कोई वचने का रास्ता निकल श्राये 1 इस परिवेश को देखकर ऊपर से तो यह लगता है कि कवि जटिल हैं, ग्रात्तंकित कर रहा हैं, भटका रहा हैं तिलस्मी वातावरण मे, पर भीतर से देखें तो मुक्तिवोव के ये संदर्भ श्रौर तत्सम्बन्धित प्रतीक श्रमना प्रथं खोलने लगते हैं । प्रतीकों की कुजी हाथ लगते ही सब कुछ जाना-पहचाना लगता है । वस्तुतः कवि इन विभीपिकाश्रो मे मानवात्मा को मुक्त करना चाहता है जो उसे या तो छल रही है या भीतर ही भीतर काट रही हैं । इसके लिए वह पहले तो आदमी को सजग करता हैं, परिचित कराता है उस परिवेश से जिसमें वह घिरा हुमा है फिर कहता है : समस्या एक-- मेरे सभ्य नगरों आर ग्रामों में सभी मानव सुखी, सुन्दर शोषण मुक्त कब होंगे ? यह प्रगतिजील चेतना कवि मे इतनी वदी हुई है कि वह मानवात्मा में प्रेम का भ्रालोक भरते के लिए ईश्वर को भी कड़ी फटकार सुनाता हुआ ग्रपनी स्वतंत्र सत्ता श्रौर शक्तिसत्ता की घोषणा करता हे : ग्रेया ह, खुदा के वंदों का वंदा हूं वावला, मेरे इस साँवले चेहरे पर कोचड़ कं धन्व ह, दाग हैं „ ्रौर इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई श्राग हैं, रग्नि विवेक की ।




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