आधुनिक परिवेश और नवलेखन | Aadhunik Parivesh Navalekhan

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Aadhunik Parivesh Navalekhan by शिवप्रसाद सिंह - Shivprasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न व 5 कर क त आधुनिक परिवेद ओर बौद्धिक वंचना : ७ से काफी विच्छिन्न हो गया । परिणामतः जहां शपिनहावर, मैक्समूकर से केकर इमर्संनः तक के पाइचात्य बौद्धिकों में भारतीय दर्शन ओर धर्म के प्रति जिज्ञासा रही, वहाँ बाद. के यूरोपीय बोद्धिकों में भारत के प्रति सस्ता कुतूहल बढ़ा--सँंपेरो के प्रति, योगियों और तांत्रिकों के प्रति, भिखारियों और मेलों के प्रति । स्वतंत्रता के बाद तो भारतीय बौद्धिकों का इतिहास सिर्फ़ आत्म-बल के हास का ही इतिहास है । स्वतंत्रता का सही अर्थ हमारे देश ने आज तक भी नहीं समझा । कारण शायद यह था कि हमें स्वतंत्रता की प्राप्ति में खूनी संघर्षों के भीतर से काफ़ी गुज़रना नहीं पड़ा । स्वतंत्रता के बाद विश्व-मत और अंतर्राष्ट्रीयता की चर्चाएँ नये सिरे से शुरू हुईं । हमने अपने को लोकतंत्र घोषित किया और इस घोषणा मात्र से आद्वस्त हो गये कि चूँकि हम लोकतंत्र हैं, इसलिए हमारी तरक्की और प्रगति के लिए विश्व के ` सभी समृद्ध लोकतंत्र स्वभावत: उत्तरदायी हैं । स्वतंत्रता के बाद के भारतीय इतिहास के अध्याय का सिर्फ़ एक ही शीर्षक हो सकता है--दर्मनाक भिक्षा-काल । इस 'भिक्षा- काल' की सबसे बड़ी याचक-मुद्रा का नाम है 'तटस्थता' । में सहअस्तित्व, तटस्थता, धर्म-निरपेक्षता आदि का सिफ़ं प्रशंसक ही नहीं बल्कि उन्हें जीवित मूल्य मान कर उनके लिए सब कुछ सहने-भोगने का संकल्प भी रखता हूँ, किंतु में जिस (तटस्थता कौ बात कर रहा हूँ वह कोई मूल्य नहीं है । दोनों ही शिविर कै देशों से अधिक से अधिक कजं पाने की यह याचक मुद्रा है जो दाताओं के अपराधों और उत्पीड़नों से संत्रस्त मनुष्यता को सही समर्थन देने में हमेशा कतराती रही है। इसके प्रति मेरे मन में जुगृप्सा हैं । विदेशी सहायता के खतरनाक प्रभावों पर पिछले दिनों क ख ग' की ओर से एक चर्चा आयोजित हुई थी और उसमें मुख्य स्वर यही सुनायी पड़ा कि ऋणी ओर दाता, सहा- यता और भिखारो के साथ-साथ जब यहु आधुनिकीकरण बनाम विकास का रूप जा मिला है तो सारे देश में एक प्रकार की हीन भावना व्रिकसित हो गयी है। इस हीन भावना और अपराजेय विवशता की स्थिति में देश का मनोबल, संकत्प-दक्ति और उसका आत्म-बल भी विघटित हुआ है। ( “कल्पना' में लक्ष्मीकांत वर्मा की रिपोर्ट, दिसम्बर, १९६५, पृष्ठ ६८ ) उस लम्बी परिचर्चा में बहुत सी बातें हूं, बहुत से प्रदन है, मगर बहुमत स्पष्ट ही इस बात को स्वीकारता हँ कि सहायता ग्रहण करने की परवृत्ति ने हमारी वैचारिक स्वतंत्रता को बाधित ओर विचारप्रणारी को असंतुलित बनाया हं । कुछ अपवाद हैं ज़रूर जो सहायताओं के पीछे छिपे हुए दाता-दंशों से बचने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ या किसी दूसरी एजेंसी के माध्यम से सहायता-वितरण का सुझाव देते हैं। एक मत यह भी था कि गरीबी की समस्या को देशों की सीमाओं में सीमित करके नहीं सोचना चाहिए । और यदि अमरीका ने इस दृष्टि से सोचना बंद कर दिया हू तो आवश्यक नहीं कि हम भी इस दृष्टि से सोचना बंद कर दें, अगर हमारी राष्ट्रीय स्थिति ऐसी है कि शायद संपूर्ण संसार की ओर से सोचने का सेहरा हमारें ही सर आने वाला




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