जैन परम्परा का इतिहास | Jain Parampara Ka Itihas

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Jain Parampara Ka Itihas by छगनलाल शास्त्री - Chaganlal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जेन परम्परा का इतिहास [ कर्तव्य बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभेदेव राज्य करने गे । वहुत र्वे समय तक वे राजा रहे । जीवन के अन्तिम भाग मे राज्य त्याग कर वे मुनि वने 1 मोक्ष-घमं का प्रवर्तन हुआ । यौगलिक काल मे क्षमा, सन्तोष आदि सहज धर्म ही था 1 हजार वपं की साधना के वाद भगवान्‌ ूषभदेव को कंवल्य-छाभ हुआ 1 साधु-साध्वी श्रावक-धाविका-इन चार तीर्थो की स्थापना की । मुनि-घर्मं के पोच महात्रत और गहस्य-धमं के वारह्‌ त्रतो का उपदे दिया 1 साघु-साध्ियो का सघ वना, श्रावक-श्राविकाए भी लनी 1 साम्राज्य-लिप्ता और युद्ध का प्रारम्भ भगवान्‌ ऋषपभदेव कर्म-युग के पहले राजा थे । अपने सौ पुत्रो को अरग- अलग राज्यो का भार सौप वे मुनि वन गए । सबसे वडा पुत्र भरत था 1 वह्‌ चक्रवर्ती सम्नादू वनना चाहता था । उसने अपने ६६ भाइयों को अपने अधीन करना चाहा । सबके पास दूत भेजे । £८ भाई मिले । आपस में परामनं कर भगवान्‌ कऋषपभदेव के पास पहुँचे । सारी स्थिति भगवान्‌ के सामने रखी । द्विविघा की भाषा मे पुछा--भगवन्‌ ! वया' करें ? बड़े भाई से लड़ना नही चाहते और अपनी स्वतन्त्रता को खोना भी नही चाहते । भाई भरत ललचा गया है । गापके दिये हुए राज्यों को वह वापिस लेना चाहता है । हम उससे ल्डे तो श्रातृ-बुद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी । बिना लडे राज्य सौप दें तो साम्राज्य का रोग बढ जाएगा । परम पिता! इस द्विविधा से उबारिए । भगवान्‌ ने कहा-- पुत्रों 1 तुमने ठीक सोचा । लड़ना भी बुरा है गौर क्लीच बनना भी बुरा है । राज्य दो परो वाला पक्षी है । उसका मजबूत पर युद्ध है । उसकी उडान में पहले वेग होता है नन्त में थकान । वेग मे से चिनगारियाँ उछकती है । उड़ाने वाले लोग उससे जल जाते है 1 उडने वाका चक्ता-चख्ता थक जाता है 1 दोष रहती है निराशा और अनुताप ॥ पुत्रो 1 तुम्हारो घम सही है । युद्ध बुरा है--विजेता के लिए भी. और पराजित के छिए भी । पराजित अपनी सत्ता को गँवा कर पछताता है और विनेता कुछ नहीं पा. कर पछछताता है। प्रतिशोध की चिता जछाने वाला उसमे




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