जैन परम्परा का इतिहास | Jain Parampara Ka Itihas
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
182
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जेन परम्परा का इतिहास [
कर्तव्य बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभेदेव राज्य करने गे ।
वहुत र्वे समय तक वे राजा रहे । जीवन के अन्तिम भाग मे राज्य त्याग कर
वे मुनि वने 1 मोक्ष-घमं का प्रवर्तन हुआ । यौगलिक काल मे क्षमा, सन्तोष
आदि सहज धर्म ही था 1 हजार वपं की साधना के वाद भगवान् ूषभदेव
को कंवल्य-छाभ हुआ 1 साधु-साध्वी श्रावक-धाविका-इन चार तीर्थो की
स्थापना की । मुनि-घर्मं के पोच महात्रत और गहस्य-धमं के वारह् त्रतो का
उपदे दिया 1 साघु-साध्ियो का सघ वना, श्रावक-श्राविकाए भी लनी 1
साम्राज्य-लिप्ता और युद्ध का प्रारम्भ
भगवान् ऋषपभदेव कर्म-युग के पहले राजा थे । अपने सौ पुत्रो को अरग-
अलग राज्यो का भार सौप वे मुनि वन गए । सबसे वडा पुत्र भरत था 1
वह् चक्रवर्ती सम्नादू वनना चाहता था । उसने अपने ६६ भाइयों को अपने
अधीन करना चाहा । सबके पास दूत भेजे । £८ भाई मिले । आपस में
परामनं कर भगवान् कऋषपभदेव के पास पहुँचे । सारी स्थिति भगवान् के
सामने रखी । द्विविघा की भाषा मे पुछा--भगवन् ! वया' करें ? बड़े भाई से
लड़ना नही चाहते और अपनी स्वतन्त्रता को खोना भी नही चाहते । भाई भरत
ललचा गया है । गापके दिये हुए राज्यों को वह वापिस लेना चाहता है ।
हम उससे ल्डे तो श्रातृ-बुद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी । बिना लडे राज्य
सौप दें तो साम्राज्य का रोग बढ जाएगा । परम पिता! इस द्विविधा से
उबारिए । भगवान् ने कहा-- पुत्रों 1 तुमने ठीक सोचा । लड़ना भी बुरा है
गौर क्लीच बनना भी बुरा है । राज्य दो परो वाला पक्षी है । उसका मजबूत
पर युद्ध है । उसकी उडान में पहले वेग होता है नन्त में थकान । वेग मे से
चिनगारियाँ उछकती है । उड़ाने वाले लोग उससे जल जाते है 1 उडने वाका
चक्ता-चख्ता थक जाता है 1 दोष रहती है निराशा और अनुताप ॥ पुत्रो 1
तुम्हारो घम सही है । युद्ध बुरा है--विजेता के लिए भी. और पराजित
के छिए भी । पराजित अपनी सत्ता को गँवा कर पछताता है और विनेता
कुछ नहीं पा. कर पछछताता है। प्रतिशोध की चिता जछाने वाला उसमे
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