रवीन्द्र - साहित्य भाग - 1 | Ravindra - Sahity Bhag - 1

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Ravindra - Sahity Bhag - 1  by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो बहन : उपन्यास १५ स्वभाव हो गया चिड़चिड़ा । ऊँचा तंग कोट, तंग फुसंत, तेज चाल, बातचीत चिनगारी-सी संक्षिप्त । शमिकाकी सेवा उसकी दूत लयके साथ ताल मिलाकर चलनेकी भरसक कोशिश करती है । स्टोवके पास खाने-पीनेकी कोई न-कोई चीज हमेशा गरम रखनी पडती, कोई ठीक नहीं कि कब अचानक कह बैठे, चट दिया, खौटनेमें देर होगी ।' मोटरगाडीमें भी सोडावाटर ओर छोटे टीनके उब्बेमें बन्द खुदकं खाना हरदम तयार रखा रहता हं । ओडीकोलनकी शीशी हर वक्त एेसी जगह रखी रहती हौ जहाँ तुरत नजर पड़े, कोई ठीक नहीं कि कब माथेमें दर्द शुरू हो जाय । गाडी वापस आने पर सब चीजें वह खुद उठाकर देखती कि कोई भी चीज काममें नहीं लाई गई। मन उसका उदास हो जाता । सोनेके कमरेमें घुली-हुई धोती गंजी वगैरह पहननेके कपड़े ऐसी जगह जतनसे तह किये-हुए रखे रहते जहाँ नजर पड़े ही पड़े; फिर भी हफ्तेमें चार-चार दिन कपड़े बदलनेकी उसे फुरसत ही नहीं मिठती । घर-गृहस्थीकी सलाहको इतना छोटा कर देना पड़ा हैं कि उसकी तुलना जरूरी टेलीग्रामकी ठोकर-मार भाषासे ही हो सकती है, सो भी चलते-चलते पीछेसे यह कहते हुए कि “सुनते हो, एक बात सुनते जाओ 1' उनके रोजगारके साथ शर्मिलाका जो थोड़ा-बहुत सम्बन्ध था, वह था कर्जका, वह भी मय-ब्याजके चुक गया । ब्याज भी ठीकसे जोड़कर बाकायदा रसीद लेकर दी हे। रामिरानें कहा, “बाप रे बाप, प्रेममें भी पुरुष अपनेको पूरी तौरसे नहीं मिला सकते ! एक जगह खुली छोड़ देते हूँ, वहीं उनके पौरुषका अभिमान बना रहता है।” मुनाफेके रुपयोंसे शशांकने भवानीपुरमें एक मकान खड़ा कर लिया है अपनी तबीयतका । वह उसके शौककी चीज हे। स्वास्थ्य आराम और सिलसिलेके नये-नये प्लैन दिमागमें आ रहे हें। दर्मिलाको आइचर्येमें डालनेकी कोशिशामें है वह । दर्मिला भी बाकायदा आइचये-चकित होनेमें कोई बात उठा नहीं रखती । इञ्जीनियरनें एक /कपड़े घोनेकी मीन बिठाई, शर्मिलाने उसे चारों तरफसे देखा-भाला और खूब तारीफ की ।




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