मरणमोज | Maranmoj

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Maranmoj by पं. परमेष्ठी दास - Pt. Parameshthi Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` | परमभोज ॥ , पु सतात्मा फिर उसके ठपभोगके छिये न तो वापिस भाता है गौर न रखें पढ़ा रहता है, न मरण स्थानपर मंडराता रहता है । इसलिये तमाम मिथ्या क्रिया्ओंका त्याग करे । ५९ में छन्दसे परिजनोके जीमनेकी रूद़ि बताकर उसे भी नि कहा है । ५ किन्तु हम भाज देखते हैं कि जेनोंपें प्राय; तमाम मिथ्या क्रियायें प्रचलित है । मरणभोजके चयि शक्ति न होनेपर मी अनाथ विधवाभोकि गहने बेचे जाते हैं, उनके मकान बेच दिये जाते दै, सारी सम्पत्ति स्वाहा करदी जाती है सोर नुक्ता किया जाता है। ऐसा न करनेपर उसकी निन्दा होती है नोर कहीं कर्हीतो मरणमोज न करमेवार्छोको जातिबहिष्छृत मी कर दिया जाता है। यह सब बातें मापको भागे करुणाजनक घटनाकि प्रकरणे देख- मेको मिलेंगी । मरणभोजकी भयंकरता । मरणभोजकी राक्षसी प्रथाके कारण अनेक विधवायें बर्बाद होगई, मनेक बच्चे दाने दानेको तरस रहे दै, अनेक ऊचे घर कुजे करके मिट्टीमें मिल गये है। इस भयंकर प्रथाकी पुष्टिके लिये कई युदद- स्थोकी घर जायदाद वेचना पढ़ी, गद्दने बतेन बेचना पढ़े और अपना जीवनतक बेच देना पढ़ा, किन्तु निदयी पंचोंने जीवन लेकर भी जीमन नहीं छोड़ा । निदेयलाके साथ ही साथ बढ कितनी मयंकर भसभ्यता है कि माता मरे या पिता, भाई मरे बा भोजाई, काका मरे या काकी,




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