समयसार प्रवचन भाग - 2 | Samaysaar Pravachan Bhag - 2

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Samaysaar Pravachan Bhag - 2 by पं. परमेष्ठी दास - Pt. Parameshthi Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৪ श्रीमद्‌ मगयत्‌ इन्दडुन्दाचाय देव प्रणीत श्री समयमार झाद्ध पर परम पूज्य श्री कानजी स््रामी के प्रवचन गाया १३ से प्रारम्भ भूमिका यपार्थ नय तत्चों के विकल्प से छृटकर निमेल एक स्वमातता को शुद्धनय से जानना से निःुचय-सम्यफत्व है, यह बात হেন गाया में कड्ढी जायेगा | धर्म-भाषमा का निमल समात्र-भागा में ही साधीनरूप से है यह ने तो बाह्य से भाता है शोर न बाहर की सट्टायता से भाता *ै, किमी भी पर से या शुमगिल्य की मद्दायता से श्रामा का प्ति- फारी धर्म प्रगट नहीं होता | भह्ानी जीव पर-पयोगाघीन विकारी झव- सवा का कता द्वोबर अपने को भूलकर देहादिक तथा रागादिकम्य से पको किया वरने बाले के रूप में भपने को मानता है, ,विन्‍्तु परमार्थ से भात्मा हरे से मिनर है, प्रतिध्मय নাহি আনন पूर्ण है और खतत है । झात्मा में भनत मुण मरे हुए हैं, उसकी ययार्थ अतीति करके ब्रिकारी भागों वा त्याग करके निर्मल निराकुल ज्ञानानद सख्वमात को अगठ काने হী মহা ই। জী ছা ঘকনা ই লহী মহা জানা £। আলা লা का উজ नहीं का पऊ्ता इसलिये वह्द नहीं कद्दा गया है | झात्मा भपने में ही भनत पुरुषाये कर सकता है, बाह्य में कुछ नहीं कर सकता। 7 ज्षो कोई भागा भपना भला (कल्याण) वरना चाहता है वह यदि ल्ाधित हो तमी कर सस्ता है। यहति बाहर से लेगा पढ़े तो पराचीन बडलाता है | आत्मा का घमे स्ावीद भपने में हो है | मन, वचन, काय मेँ भ्राता का घमे नहीं है, मीतर जड़-कर्म का




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