हिन्दुस्तानी त्रैमासिक | Hindustani Traimasik
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ हन्दुस्ताना भगि २,
भरद्धशती की दो अय विज्वेषताएँं मी द्रष्टव्य हैं. एक यहू कि इसमें मान मोर
विचार के सामान्य विभेद से ऊपर उठकर मावातीत विचारों को व्यक्त करने की कोशिश
की भद है इती कोशिश के कारण “झद्धशती' की कुछ कविताओं यें एक जीवन-दाक्षोनक
की गम्भीर समंवेदना मिलती है जो शबव्दाहिदाय नहीं, शब्दों की मितव्ययिता द्वारा
झभिव्यक्त हुई है । दूसरी विशेषता यहूं है कि 'अद्ध॑शती” में लघुयति रपन्दों से युक्त कई कविताएँ
मिलती हैं । प्राय: ऐसी' कविताएँ छोटी-छोटी पंक्तियों में रची गई हैं और इनमें ्ाचेष्टित
घ्वमि-भंकार को भरते को कोशिश नहीं की राई है । इस प्रकार झधिव्यंजना की स्तरीय
विविधता ग्रौर सामिक् ब्रथ॑च्छायाश्र कौ कान्तिने श््रद्धंशतीः की कविताओं को रमणीय
बना दिया ह । अतः यह संग्रह प्रमाणित करता है कि राव की कविताएँ नीरन्ध्र बुद्धिषादिता
था एक अरध्ययनशील बुद्धिजीवी की भावनाहपक प्रतिक्रिया-मात्र नहीं हैं ।
नई पोढ़ी की काव्य-प्रवृत्तियों के साथ रहकर भी राव ने कुंठाओं के तथाकथित
दवासावरोध से हार नहीं मानी हैं । इसलिए इन्हें झनास्था का कवि नहीं माना जा सकता |
वास्तविकता यह है कि ये सही मानी में आस्था के कनि हैं । इन्होंने १६५१ ईसवी में रचित
*पास्वा” वीर्षक कविता में लिखा हे--
छिपे कहीं, पर फिर लौटेंगे कभी स्वप्त थी मेरे,
सारी रात बिताकर जैसे लौटा सुरथं सबेरे ।
फिर सधुकऋतु होगो, सुन लेंगे फिर कोकिल के गने,
हो जायेंगे नपे-सये फिर जो हो चुके पुराने ।
यह सराहनीय है कि इस 'विपयंस्त युग में” भी राव श्रास्था के कबि हैं । तभी तो मे
केवल विवध मन कौ ्रदम्य प्रेरणा से निुटेष्य सृजन नहीं करते, वल्क सिद्धान्ततः यष
स्वीकार करते हैं कि “सृजन की प्रेरणा केवल झास्था से हो मिल सकती है, अ्नास्था से
नहीं ** २२ अ्रनास्थाके वत॑मान युग मेँ भी इनकी प्रगाढ भ्रास्था का प्रमुख कारण यह है कि
थे सभ्यता के इतिहास को प्रगतिशीलता का इतिहास मानते है! ग्रतः इन्होते मानवता के
मगलमय भविष्य में अपनी दद् प्रस्था को व्यक्त करते दए लिखा है--“श्राज की साहित्यिक
चेतना का प्रतिनिधि अपने को केला या श्रन्वेरे मेँ नही पाता ! वह स्वीकार करता है कि
पुरानी मान्यताएं टूट चुकी हैँ, पर उसका विश्वास है कि नई मान्यताएं बन रही है, बर्नेगी ।
वहं किसी कदु-खव्य से इन्कार नहीं करता, पर विश्वास केरता है कि विकासशील मानव-वुद्धि
भर उल्लतिदील भानव-सम्यता टूटी-फूटी' मान्यताश्ों के खंडहर में ही नहीं रहेगी; खंडहर
साफ किए जाएँगे झौर नई इमारतें बचाई जायेंगी ।” * 5 संभवत: इसी दढ़ श्रास्था के कारण
कृवि नियति में विश्वासं रखने पर भी निराशावादी नहीं हुझा है। रंग-विरंगे झावरणों के
भीतर छिपे हुए कटु-्यथाथ॑ की निमम पहचान उसे मासौ खुलिया से ग्रस्त नहीं कर सकी है
बल्कि वहूं जिन्दगी के अटल अंजाम को जानकर भी मौज मना लेना चाहता है--
दीप के नीचे श्रल्बेरा हो भें हो
भाज दोवालों मनानों है हुमें तो ४
User Reviews
No Reviews | Add Yours...