तत्त्वार्थवृत्ति | Tattvarthavritti

Tattvarthavritti by महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

Add Infomation AboutMahendrakumar Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रस्तावना ११ पृथिवी-काय, आप-काय, तेज काय, वायु-काय,सुख'दुख ओौर जीवन यह्‌ सात । यह्‌ सात काय अकृत० सुख- दुखके योग्य नहीं हैं । यहां न हन्ता (-मारनेवाला) है, न घातयिता (-हनन -करमेवाला), न सुनने- वाला, न सुनानेवाला, न जाननेवाला, न जतलानेवाला । जो तीक्ष्ण दास्त्रसे शीदा भी काटे (तो भी) कोई किसीको प्राणसे नहीं मारता । सातों कायोंसे अलग, विवर (-खाली जगह) में शस्त्र ( -हथियार ) गिरता हैं ।'' यह मत अन्योन्यवाद या शाइवतवाद कहलाता था । (५) संजय बेलद्रि पुत्का मत था--“यदि आप पूछेंक्या परलोक है ? और यदि में समैझूं कि परछोक है, तो आपको वनलाऊँ कि परलोक है । मे ऐसा भी नहीं कहता, में वैसा भी नहीं कहता, में दूसरी तरहसे भी नहीं कहता, में यह भी नहीं कहता कि यद नहीं है मं यह भी नहीं कहता किं “यह नहीं नहीं है।' परलोक नहीं है० । परलोक है भी औंर नहीं भी ०, परलोक न है और न नहीं है० । अयोनिज (-औप- पानिक) प्राणी हं । आयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न है और न नहीं हे० । अच्छे बुरे काम के फल हैं, नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैँ और न नहीं हूं । तथागत मरनेके बाद होते हैं, नहीं होते ० । यदि मुझे ऐसा पूछें और में ऐसा समझू कि मरनेके बाद तथागत न रहते हँ ओर न नहीं रहते हे तो मैं ऐसा आपको कहूँ । में ऐसा भी नहीं कहता, में वैसा भी नहीं कहता ।'” संजय स्पष्टत: संघयाल क्या घोर अनिर्चयवादी या आज्ञानिक था । उसे तत्त्वकी प्रचलित चतुष्कोटियों ममे एकका भी निर्णय नहीं था । पारीपिटकमें इसे अमराविक्षेपवाद' नाम दिया है । भले ही हमलोगोकी समक्षे यह विक्षेपवादी ही हो पर संजय अपने अनिदचयमें निश्चित था । (६) बुद्ध--अव्याकृतवादी थे । उनने इन दस बातौको अव्याकृत + बतलाया है । (१) लोक ाघ्वत है ? (२) लोक अशादवत है ? (३) लोक अन्तवन्‌ हं ? (४) लोक अनन्त है ? (५) वही जीव वही शरीर हं ? (६) जीव अन्य और दारीर अन्य है (७) मरनेके बाद तथागन रहते हं ? (८) मरने कै वराद तथागत नही रहने ? (९) मरनेके बाद तथागत होते भी हे नहीं भी होते ? (१०) मरनेके बाद तथागत नहीं होते, नहीं नहीं होते 2 इन प्रबनोंमें लोक आत्मा और परछोक या निर्वाण इन तीन मुख्य विवादग्रस्त पदार्थोंको बुद्धने अब्या- कृत कहा । दीघनिकायकें पोट्ठवादसु्त में इन्ही प्रशनोंकों अध्याकृत कहकर 'अनेकांडिक कहा है। जो व्याकरणीय हूं उन्हें 'एकाशिक' अर्थात्‌ एक सुनिश्चितरूपमें जिनका उत्तर हो सकता है कहा है । जैसे दुख व) आर्यसन्य है ही ? उसका उत्तर हो है ही' इस एक अंगरूपमें दिया जा सकता है । परन्तु लोक आत्मा ओर निर्वाणसंबंधी प्रव्न अनेकांशिक हें अर्थात्‌ इनका उत्तर हां या न इनमेंसे किसी एकके द्वारा नहीं दिया जा सकता । कारण बुद्धने स्वयं बताया है कि यदि वही जीव वही शरीर कहने ह तो उच्छेदवाद अर्थात्‌ भौतिकवादका प्रसंग आता हे जो बुद्धको इष्ट नहीं और यदि अन्य जीव ओर्‌ अन्य शरीर कहते हं नो नित्य आत्मवादका प्रसंग आता हंजो भी बुद्धको इप्ट नहीं था । बुद्ध ने प्रदनव्याकरण चार प्रकार का बताया है--(१) एकग (है या नहीं एकमें ) व्याकरण, प्रतिपृच्छाव्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न ओर स्थापनीय प्रइन । जिन प्रदनोंको बुद्धन अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकांगिक भी कहा है अर्थात्‌ उनका उत्तर एक है या नहीं में वि =-= ~ ~~~ न = = १ अ त 1 न ना हा. ~ ~ -- १सस्सतों छोको श्तिपि, असस्सतो रोको इतिपि, अन्त लोको 8तिपि, अनन्तवा लोको शतिंपि, तं जीवं त सरीरं तिपि, अध्म जीवं अन्न सरीर शतिपि, होत्ति तथागतो परम्मरणा इतिप, होतिच न च होति च तथागतौ पम्मरणा शिपि, नेव होति न नहोति तथागतो परभ्मरणा इतिपि । ” --मज्झिमनिं० चूलमाछक्यसुत्त । २ “कतमे च ते पोटुपाद भया अने कंसिंका धम्मा देतिंता पन्‍्जत्ता ? सरसतों लोको तिं बा पोट्टपाद मय। अनेकं - सिंको घम्मों देसितो फन तो । असस्सतों लोको तिं खो पोट्टपाद मया अनेकंसिंको . « *--दीघनिक पोट्टपादवुत्त ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now