सुवर्णलता | Suvarnalata

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Suvarnalata by आशापूर्णा देवी - Ashapoorna Deviहंसकुमार तिवारी - Hanskumar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ही लीलाओं में हिस्सा लिया--फिर भी, पिंजरे की पीड़ा के बोघ से हर पल छट- पट करती रही । सुवर्गलता का स्वामी क्षुन्ध गर्जन करके कहता, “जानकर दुःख को न्योत लाना ! चाहकर कप्ट उठाना ! सौ सुखो मे भी रात-दिन लम्बा नि.श्वास ! और क्या चाहिए तुम्हें ? और कितना चाहिए ?”” सूवणेलता कट्ती, «गै तो कुछ भी नहीं चाहती ।” चाहो भी क्यों, जब मुंह खोले बिना ही सब कुछ हाथों में पा जाती हो । अपनी दूसरी देव रानियों से तुलना करके देखा है कभी ?”” ः सुवर्णलता मुस्क राकर कहती, “खूब !'' “फिर भी रात-दिव निःश्वास ! आखिर माँ-जेसी ही बेटी होगी न 1”* सुवर्णलता तीखे स्वर में कहती, “फिर 7” पर्तति डर से घोल उठता, “अच्छा बाबा, अब नहीं क हूंगा ।'” उस तीखेपन के पीछे एक भयंकर अभिन्नता की याद है। डरना तो है ही । लेकिन ये बातें तो बहुत बाद की है । जब सुवर्णलता की कनपटी के पास रुपहले तार की झलक आयी, जब सुवर्णलता के लम्बे उत्नत और मसकते गठन में क्षय शुरू हुआ । पहले, जव सुवर्णलता अपनी पतित्यागिनी माँ के निन्दनीय इतिहास का सम्बल लिये सिर स्ुकाये ससुराल मं बसने भायी थी, जव किसी भी उपलक्ष्य पर सुवर्णलता की सास सुवणलता को उसकी व्याहता वेमनी रंग की जवरेजग वनारसी साडी ओर बड़ं-बडे वूटेदार मखमली जाकिट से सजा-सेवार देती मौर कोई मिलने-जुलने आती तो उसके सामने नमक-मिर्च लगाकर वहू और बहू के मेके की निन्दा करती--तव ? तब सुवर्ण को इतना साहस कहाँ था ? उस समय मुक्तकेशी का अड्डा अपने घर में ही था, कही जाना मही पड़ता था । मुहल्ले की सभी आती थी मुक्तकेशी के पास । अलिखित कानून से मृहल्ते की सभी महिलाएं मुक्तकेशी की प्रजा थी । तिमंजिला मकान । दालान-कमरे की संख्या कम नही । दो तरफ़ दो रसोई- घर, पक्का भंगना, कोई तीन-चार नल-हौज । कहीं कोई असुविधा नहीं । लेकिन, वस इतना ही । मकान मानो साधारणता का एक प्रतीक । न तो कोई थी, न कोई ढंग ! घर कि घर । रहने के लिए कितना कुछ चाहिए, केवल इसके अलावा घर बनाते समय ओर कोई वात इनके माथे में न भाषी थी, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता । मठ नही, मन्दिर नही, बड़ आदमी का वाग-महल भी नही, गृहस्थ के वास करने का घर । उसमें शोभा-सौंदयं, शिल्प-रुचि--इसका क्या नाता है, यह इन सबके दिमाग के परे है । सुवर्णसता 3




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