सूरति मिश्र का अज्ञात काव्य | Surti Mishra Ka Agyat Kavya

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Surti Mishra Ka Agyat Kavya by रामगोपाल शर्मा - Ramgopal Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शोध-भुमिका ३. “कविप्रिया ग्रन्थ केशो कृत ने सब संस्कृत के पण्डितों को इस बात पर भ्रारूढ केर दिया कि वे सव सस्रत काव्य को छोड़ भाषा काव्य करने लगे । इसी कारण संवत्‌ १७०० मे चिन्तामणि, मतिरास, भूपण, कालिदास केविद, दूलह्‌, देव, करनं >< % सुरति भिश्च, देवीदास, मुबारक, रसखान, रामकवि इत्यादि कवियों ने भापा-कान्य के बड़े-बड़े अ्रदूभरुत ग्रन्थ वनाए। सवत्‌ १८०० मे जेसे भ्रच्छे कवि हुए ऐसे किसी सैकरा के भीतर नदी हुए थे 1१ इस परिचय के ्रतिरिक्त सरोजकार ने सूरति मिश्र की कविता के दो उदाहरण भी प्रस्तुत किये है, जो निम्नाकित है.-- “खरी होहु ग्बालिनि, कहा जु हमे खोटी देखी, सुनोनेकु बैन सौ तो श्रौर गड जादइये। दीजै हमें दान, सो तो भ्राज ना परब करू, गोरस दै, सो रस हमारे कहाँ पाद्ये ॥ मही हमे दीजै, सो तो दै है महीपति कोऊ, दही दीजे, दही हो तो सौरो कषु सादये ॥ भरति” युकवि एसे सुनि हरि री लाल, दीन्दी उर माल शोभा कहां लगि गाइये ॥ श्रलंकार-साला दोहा-- तडि घन वपु घन तडि वसन, भाल लाल पख मोर । व्रज जीवेन सरति सुभग, जय जय जुगल किशोर 1 सुरति भिश्च कनौजिया, नगर आगरे वास । रच्यो ग्रन्थ नवभरुषननि, वलित विवेक विलास ।। सवत्‌ सत्तरह्‌ सँ बरस, ख्यासरि सावन मास । सुरगुरु सुदि एकादसी, कीनौ ग्रन्थ प्रकास ।)”* शिवर्सिह द्वारा प्रस्तुत विवरण से पता चलता है कि-- १. शिवसिह-सरोज, ले शिवसिहे, प्रथम सस्करण, सवत्‌ १६३४ वि पृ० २८६ २. गिवसिहे-सरोज, पू २८९1




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