अनेकान्त भाग - 1, 2 | Anekant Bhag - 1, 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Anekant Bhag - 1, 2  by आचार्य जुगल किशोर मुख़्तार - Acharya Jugal Kishore Muktar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

Author Image Avatar

जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

Read More About Acharya Jugal Kishor JainMukhtar'

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अनेकान्त-57/1-2 13 जिनशासन स्याद्वाद मुद्रा * से प्रतिष्ठित होने के कारण एक पदार्थ मेँ एक ५ साथ रहने वाले विरोधी धर्मो की ्षैवस्थिति को स्वीकार करता है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी इसका प्रतिपादन करते हुए कहते ₹हँ- अवस्थितिः सा तव देव दृष्टर्विरुद्ध धर्मेष्वनवस्थितिर्या । स्खलन्ति यद्यत्र गिरः स्खलन्तु जातं हितावन्यहदन्तरालम्‌। । &/19 लघु. हे देव! विरुद्ध धर्मो मेँ जो एक के होकर नहीं रहना है, वह आपकी दृष्टि की स्थिरता है-आपके सिद्धान्त की स्थिरता है। यदि इस विषय में वचन स्खलित होते ह तो स्खलित हों क्योकि दोनोँ-आप तथा अन्य की दृष्टि में बहुत अन्तर-भेद सम्पूर्णरूप से सिद्ध हो गया। जिनेन्द्र भगवान दारा ही स्यादाद सिद्धान्त का प्रणयन किया गया टै जैसा कि आठवीं स्तुति में आचार्य ने लिखा भी है- गिरां बलाधान विधान हेतौः स्याद्वाद मुद्रामसुजस्त्वमेव । तदङ्कितास्ते तदतत्स्वभावं वदन्ति वस्तु स्वयमस्खलन्तः । । 208 लघु. हे भगवन्‌! शब्दों मेँ दृटृता स्थापित करने के लिए आपने ही स्याद्वाद मुद्रा को रचा है-इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया है । इसलिए उस स्याद्वाद मुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित न होते हुए अपने आप वस्तु को तत्‌ अतत्‌ स्वभाव से युक्त कहते है । संसार के पदार्थ विधि ओर निषेष दोनों रूपों से कटे जाते हैँ अर्थात्‌ स्वकीय चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति आदि विधिरूप है ओर परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध आदि नास्तिरूप है । पदार्थ का कथन करने वाले शब्द अभिधा शक्ति के कारण नियन्त्रित होने से दो विरोधी धर्मो में सेएक को कहकर क्षीण शक्ति हो जाते है दूसरे धर्म को कहने की उनमें सामर्थ्य नहीं रहती । एक अंश के कहने से वस्तु का पू्णस्वरूप कथन मेँ नहीं आ पाता इस स्थिति में हे , भगवन्‌! आपके अनुग्रह से स्यादाद रौ कथञ्चिद्वाद का आविर्भाव हुजा। उसके प्रबल समर्थन से शब्द दोनों स्वभावो से युक्त तत्त्वार्थं का व्याख्यान करने मेँ समर्थ होते हैँ। अर्थात्‌ स्याद्वाद का समर्थन प्राप्त कर ही शब्द यह




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now