जैन सिद्धान्त दर्पण | Jain Siddhant Darpan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
254
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)त्रथम अधिकार | . 1३.
` सव दे्ोमिं रटे; पेसा न होनेसे वह ख्मृण न क्टाकर सदोप
.-छक्ण यानी लक्षणामास कहलाता है, जिससे कि वद्द, अन्यव्या-
चृत्ति करते हुए अपने ठक्ष्यका नियामक नहीं हो सक्ता । इस
छक्षणाभासके तीन सेद् दै
अव्याप्र ९ अतिव्यप्र २ असम्भवी ३) अव्याप्र श्रणामास
उसे क्ते दै जो छश्य ( जिसका कि लक्षण किया जाय) के
एक-देगमें रहे, जैसे जीव, सामान्यका छण रागहेप । य्
“'रागद्वंप” लक्रण सर्वं जीवों ( संसारी व सिद्धो) मे न रहकर
केवट उसके एकदेदा भृत जो संसारी जीव उन्दीमिं र्टता द,
सिद्धम नदीं रहता, इस दिए णसा छ्श्चण अव्याप्र (लक्ष्यमात्र
न व्याप्रोऽव्याप्रः अथवा अ-षकदेमे व्याप्तः अच्याप्रः अधौत
-ख्धयमाच्र यानी टश्षयके सर्वेदेशोंमें जो नहीं व्याप-रहं उसे
अव्याप्त कदते हैं। अथवा अ मनं एकदेद यानी लक्ष्यके एफ
देवमें जो व्यापे-रहै उसे अच्याप्त कहते हैं) ठक्ष्णाबास फहुलाता
। जो लक्ष्यमें रदकर अन्य अलक्ष्य (ल्के सिवाय अन्य
'पदार्थ, जिनका कि बक्षण नहीं किया गया) में भी रहे उसे
याप्र (अति-अतिक्रस्य क्यमिति गोपः व्याप्रोतीस्यतिव्यापर
अथोंत् क््यको दछोडकर अन्य अद्ये व्यापे-रदै उसे अति-
व्याप्त कहते हैं) उक्षणाभास कहते हूं ।
जेसे झुद्ध जीवका लभ्ण अमूर्वत्व-रूप, रस, संध, म्प्र
रहित होना । चह लक्षण यद्यपि लक्ष्यमूत जीवम रहना है,
परन्तु लक्ष्यके सिवाय अन्य आकाशादिक अलश्यमें भी रहता है
इसलिए ऐसा लमण अतिव्याप्त लक्षणाभास कहलाता हैं। जिसकी
लक्ष्पमें सम्मावना दी न हो उसे असम्मदी (लक्ष्स न सम्मघती-
-त्यसम्भवी अद् जो स्स्यने नदौ सम्भवे, चसे असन्मवी
-लक्णामास यते हैं )
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