जैन सिद्धान्त दर्पण | Jain Siddhant Darpan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्रथम अधिकार | . 1३. ` सव दे्ोमिं रटे; पेसा न होनेसे वह ख्मृण न क्टाकर सदोप .-छक्ण यानी लक्षणामास कहलाता है, जिससे कि वद्द, अन्यव्या- चृत्ति करते हुए अपने ठक्ष्यका नियामक नहीं हो सक्ता । इस छक्षणाभासके तीन सेद्‌ दै अव्याप्र ९ अतिव्यप्र २ असम्भवी ३) अव्याप्र श्रणामास उसे क्ते दै जो छश्य ( जिसका कि लक्षण किया जाय) के एक-देगमें रहे, जैसे जीव, सामान्यका छण रागहेप । य्‌ “'रागद्वंप” लक्रण सर्वं जीवों ( संसारी व सिद्धो) मे न रहकर केवट उसके एकदेदा भृत जो संसारी जीव उन्दीमिं र्टता द, सिद्धम नदीं रहता, इस दिए णसा छ्श्चण अव्याप्र (लक्ष्यमात्र न व्याप्रोऽव्याप्रः अथवा अ-षकदेमे व्याप्तः अच्याप्रः अधौत -ख्धयमाच्र यानी टश्षयके सर्वेदेशोंमें जो नहीं व्याप-रहं उसे अव्याप्त कदते हैं। अथवा अ मनं एकदेद यानी लक्ष्यके एफ देवमें जो व्यापे-रहै उसे अच्याप्त कहते हैं) ठक्ष्णाबास फहुलाता । जो लक्ष्यमें रदकर अन्य अलक्ष्य (ल्के सिवाय अन्य 'पदार्थ, जिनका कि बक्षण नहीं किया गया) में भी रहे उसे याप्र (अति-अतिक्रस्य क्यमिति गोपः व्याप्रोतीस्यतिव्यापर अथोंत्‌ क््यको दछोडकर अन्य अद्ये व्यापे-रदै उसे अति- व्याप्त कहते हैं) उक्षणाभास कहते हूं । जेसे झुद्ध जीवका लभ्ण अमूर्वत्व-रूप, रस, संध, म्प्र रहित होना । चह लक्षण यद्यपि लक्ष्यमूत जीवम रहना है, परन्तु लक्ष्यके सिवाय अन्य आकाशादिक अलश्यमें भी रहता है इसलिए ऐसा लमण अतिव्याप्त लक्षणाभास कहलाता हैं। जिसकी लक्ष्पमें सम्मावना दी न हो उसे असम्मदी (लक्ष्स न सम्मघती- -त्यसम्भवी अद्‌ जो स्स्यने नदौ सम्भवे, चसे असन्मवी -लक्णामास यते हैं )




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