जैनधर्मामृत | Jain Dharmamirit (1960) Mlj

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Jain Dharmamirit (1960) Mlj by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jainसिध्दान्तशास्त्री - Sidhdantshastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय १५ ७. अमृतचन्द्र ओर तत्वाथंसार एवं पुरुपार्थसिद्धयपाय तच्वाथंसार--दि ° श्रौर श्वे ० सम्प्रदायमें समानरूपसे माने जानेवा ले तत्वाथसून्तको आधार बनाकर उसे पल्छवित करते हुए ययपि श्रा भमृत- चन्द्रने लगभग ७५० श्लोकम इस अ्रन्थकी रचना की है, तथापि अध्यायोका वर्गोकरण उन्होंने स्वतन्त्र रूपसे किया है । अर्थात्‌ तत्वाथसूत्रके समान तत्वाथसारके १० अध्याय न रखकर केवल ६ अध्याय रखे हैं, जिसमेंसे पला अध्याय सप्ततखोकी पीरिका या उत्थानिकारूप है ओर अन्तिम अध्याय उपसहाररूप है । भीचके सात अध्यायोमि क्रमशः सातो तस्वोका बहुत ही सुन्दर, सुगम और सुस्पष्ट बणन किया है । जेनधघर्मामृतके सातवें श्रध्यायसे लेकर तेरइवें अध्याय तकके सब-श्लोक इसी तत्त्वाथसारसे लिये गये हैं । पुरुषाथंसिद्ध्युपाय--मनुष्यका वास्तविक पुरुषाथ क्या है और उसकी सिद्धि किस उपायसे होती है, इम बातका बहुत ही तलस्पशोीं वणुन आ० अमृतचन्द्रने इस ग्रन्थमें किया है । यह उनकी स्वतन्त्र कृति है अौर उसे उन्होने अपने मदान्‌ पुरुषार्थके द्वारा अगाघ जेनागम महोदयिका मन्थन करके अमृत रूपसे जो कुछ प्राप्त किया, उसे इस ग्रन्थमें श्रपनी अत्यन्त मनोहारि, सरल, सुन्दर एव प्रसाद गुणवाली भाषामें सश्चित कर दिया है । हिंसा क्या है और अहिंसा किसे कहते है इसका विविध दृष्टि- कोणोंसे बहुत ही सजीव वणन इस अन्थमे किया गया है । इसमें श्रध्याय विभाग नहीं है । समग्र ग्रन्थकी पद्य सख्या २२६ है। जेनधघर्मामृतके दूसरे और चीथे अध्यायमे ८७ श्लोक पुरुषार्थसिद्धधपायसे संग्रहीत किये गये हैं । इन दोनों ग्रन्योंके अतिरिक्त भा० कुन्दकुन्दके श्ध्यात्म अन्थ समय- सार, पश्चास्तिकाय और प्रवचनसारपर भी श्रा० झमृतचन्द्रने सस्कृत टीका रची है । समयसारकी टीकाके नीच-बीचमे मूलगाथके द्वारा उक्त,




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