मध्यकालीन भारतीय कलाएं एवं उनका विकास | Madhyakalin Bharatiy Kalaen Evm Unaka Vikas

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Madhyakalin Bharatiy Kalaen Evm Unaka Vikas by श्री रामनाथ - Shri Ramnath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भारतीय चित्रकला की परम्परा श्रत्यन्त प्राचीन है। चित्रकला संबंधी उल्लेख उपनिषदों मे मिलते हैं। बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक में जो तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूवं पाली मे लिखा गया, राजा प्रसेनजित के चित्रागार का वणन है। महाउम्मग जातके मे गंगा पर वने महाउम्मग महल के चित्रों का उल्लेख है । महाभारत श्रौर रामायण काल में भी महलों श्रौर मन्दिरों में चित्र बनाए जाते थे । कौटिल्य भी चित्रकला से भली- भाँति परिचित थे श्रौर उन्होंने अपने अ्रथंशास्त्रमें विभिन्न चित्रविधियो का उल्लेख किया है । पुराणों में ऐसी चित्र-विधाश्रों का. विस्तृत वणन है। विशेषकर विष्णु-धर्मोत्तर पुराण के चित्र-सूत्र में चित्रकला का विशद्‌ विवेचन किया गया है । शित्प- शास्त्रों में वास्तुकला श्रौर प्रतिमाविज्ञान के साथ- साथ ही चित्रकला का वणेन किया जाता था। संस्कृत साहित्य मे चित्रकला सम्बन्धी बड़े रोचक उद्धरण मिलते है । कालिदास ने ग्रभिज्ञान- साकुन्तल, विक्रमोवशीयम, कुमारसम्भव, मेघदूत श्रादि लगभग श्रपने सभी ग्रन्थों में चितव्रशालाग्रोंका वरन किया है । बाणा की कादम्वनी भ्रौर हषंचरित के प्रत्येक महल मे भित्ति-चित्रोसे श्रलंकरण का वर्णन मिलता है-- “्रालिख्य गृहैरिव वहुवर्णण चित्रपत्र शकुनिशत संशोभितंः'' श्री हषे के नैषध-चरित मे चित्रकला को यही महत्त्व दिया गया है । भवभूति तीनों प्रकार के चित्रो का वर्णन करते हैं-पट्ट, पट श्रौर कुड्य (भित्ति) । वास्तव में सौन्दर्यानुभूति के क्षेत्र में चित्रकला को ग्रन्य शित्पो से उत्तम समा जाता था-- “चित्रं हि सवे शिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम्‌” वात्सायन ने भ्रपने कामसूत्र में चित्रकला के छः अंगों का वर्ॉन किया है :-- रूपभेद . प्रमाणम्‌ भाव . लावण्य-योजनम्‌ सादृश्यम्‌ . वणिका-भंग चित्र-सिद्धान्तो के इस सूक्ष्म विवेचन सेयह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारत में चित्रकला की अ्रत्यघिक प्रगति हो गई थी श्र इस कला का विधिवत्‌ शास्त्रीयकरण हो गया था । भारतीय चित्रकार वतना भ्र्थात्‌ प्रकाश और छाया के सिद्धान्त से भी भली भाँति परिचित था । इसका बन ११वीं




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