संस्कृति और साहित्य | Saskrxti Aur Saahity

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ _ विकार की विरोधी दिशा में हैं। मेरा निवेदन इतना ही है कि रस्याः की भूमिका में पन्तजी ने जिस बौद्धिक सहानुभूति का उल्लेख किया है, उसमें श्रौर गहराई लाकर उसे मामक बनाने की जरूरत थी, न कि उसे नमस्कार करके पुनः एक नये छायावादी श्रध्यात्म- जगत में खो जाने की । महायुद्ध का श्राराभ होते-होते साहित्य की मान्यताश्रों के बारे में ज़ोरों सर्वविवाद छिड़ गया था । उन दिनों श्रनेक लेखकों की यह प्रवृत्ति थी कि वे प्रेमचन्द द्वारा स्थापित जन-साहित्य की परम्परा का बिरोध करते थे । प्रेमचन्द कौ निन्दा करने के लिए वे शरत्बाबू का श्रादशं उपस्थित क्रिया करते थे । शरत्‌बाबू से प्रभावित होकर झनेक नये लेखक अपने शत मध्य-वर्गीय जीवन को त्रादश रूप में चित्रित करने में लगे थे । उनके लिये सामाजिक संघर्ष ग्रौर राजनीतिक श्रान्दोलनों का काद महत्व न था । उनके लिये सारा साहित्य अ्रवलामयथा शरीर वे हीरो” बनकर नारी का उद्धार करने में लगे थे । छायावाद के उत्तरकाल में जा. निराशा कविता में व्याप गई थी, उसी का प्रतिरूप कथासाहित्य में यह कथित नारी का उद्धार था । इस प्रवृत्ति को लद्य मं रखकर शम्त्‌- बाबू के उपन्यासों पर लेख लिखा गया था । इसमें शरत्‌बाबू को कमज़ोरियां का उल्लेख अधिक है और इसका कारण उस समय के हिन्दी लेखकों की वह प्रवृत्ति है जो इन कमज़ोरियों को ही शरत्बाबू की सबसे बड़ी महत्ता समकती थी । बेगला-साहित्य में कल्पना-प्रधान ऐतिहासिक रोमान्सों की दुनिया से अलग होकर शरत्‌बाबू ने घरेलू जीवन के यथार्थवादी चित्रण का श्रीगणेश किया था । बंगाल श्रौर हिन्दुस्तान के साहित्य मेँ उनका एक महच्वपूणं ऐतिहासिक स्थान है जिसे भुलाया नहीं जा सकता । सामाजिक उत्पीडन श्रर श्रन्याय के प्रति उनकी सहानुभूति नहीं थी । परन्तु बंगाली भद्रलोक के जीवन




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