जैनसिद्धांत - प्रवेशिका | Jainsiddhant - Praveshika

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Jainsiddhant - Praveshika by रतनकुमार जैन - Ratankumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प (७) तिण्डुगुगव्वयाणे, चउण्हं सिक्लावयाणं, बारतविहस्त साबगधम्मस्त, जं खंडियं, जं विरा्हियं तस्ष मिच्छामि दुरकवकडं । मूल शब्द इच्छामि ठाइउं - काउस्सग्गं-- जो मे- देवसियो- अद्यारो कभो-- काडगो- वाइगो-- माणसिओ-- उस्मुत्तो-- उम्पग्गो-- अकप्पो-- भकरणिज्जो-- दुज्काओ-- दुविविचितिओ - गणायारो-- अगिच्छिअन्वो - प्रथं मैं करने की इच्छा करता हूँ ! एक स्थान में स्थिर रहनें रूप कांयो- त्सगं को । जो मैंने । दिन सम्बन्धी । अतिचार (दोप ) किया हो । कायां सम्वन्धी 1 वचन सम्वन्धी । मन सम्बन्धी । सूत्र-विपरीत कथन किया हो । उन्मा (जैन मागं से विपरीत) का कथन किया हो । अकल्पनीय ( नहीं कल्पने योग्य ) नहीं करने योग्य कार्य किया हो । दुष्ट ध्यान किया हो । दुष्ट चिस्तन किया हो 1 अनाचार का सेवन किया हो- नियमों का सर्वेथा भंग किया हो 1 इच्छा नहों करने योग्य पदाथ की इच्छा की हो ।




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