इष्टोपदेश | Ishtopadesh

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : इष्टोपदेश  - Ishtopadesh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

Add Infomation AboutDhanyakumar JainSudhesh'

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
४ रायचन्धजेमश्ाखमाङायाम्‌ [ कोक याषस्युखेन तिष्ठति आतपरिथत्तश्च दुःखेन विति तथा अतादिक्ञतानि स आत्मा जीव: सुद्व्यादयों मुक्तिहेतयों यावस्संपयते तावत्छर्गादिपदैषु सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेपु दुःखेनेति । अथ विनेयः पुनराशङ्कते । एवमात्मनि मक्तिरयुक्ता स्यादिति मगवन्नैवं चिरभाविमोष्चसुखस्य बतसाष्ये सेसारसुखे सिद्धे शत्यात्मनि चिद्रूपे मक्तिभौवविश्चद्ध आन्तरोऽनुरागो अयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्धवेत्‌ तस्छाप्य स्य मोक्षटुखस्य सुदरन्यादिसंपच्य पक्षया दरब तित्वादवान्तरप्राप्यस्य च स्वगादिमुखस्य बतैकसाभ्यत्वात्‌ । अत्राप्याचार्यः घमाधत्ते- तदपि नेति । न केवलं ब्रतादीनामानयेक्य न मवेत्‌ । किं तर्द, तदप्यास्ममक्तथनुर िपकाशनमपि त्वया क्रियमाणे न साघु स्यादित्यय: । यतः--॥ ३ ॥ अर्थ--ब्रतोंके द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अ्रतोके द्वारा नरक-पद प्राप करना अच्छा नहीं है । जैसे छाया और श्रूपमें बैठनेवाठॉमें अन्तर पाया जाता है, वैसे ही ब्रत ओर अन्रतके आचरण व पालन करनवाठेमिं फकं पाया जाता दै । विशदार्थ--अपने कार्यके कशसे नगरके भीतर गये हुए तथा वहाँसे वापिस आनेवाले अपने तीसरे साथीकी मागेमें प्रतीक्षा करनेवाठे जिनमें ते एक तो छायामें बैठा हुआ है, और दूसरा धमे बैठा हुवा है- दो व्यक्तियोंमें जैसे बड़ा भारी अन्तर है; अर्थात छायामें वैठनेवाला तीसरे पुरुषके आनेतक सुखसे बैठा रहता है, और ध्ूपमें बैठनेवाठा टुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है । उसी तरह जबतक जीवको मुक्तिके कारणभ्रृत अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिक प्राप्न होते हैं, तबतक ब्रतादिकोॉंका आचरण कलेवाला खवगादिक स्थानेमिं आनन्द्के साथ रहता है । दूसरा ब्रतादिकोंको न पाठता हुआ असंयमी पुरुष नरकादिक स्थानोंमें दुःख भोगता रहता है । अतः ब्रतादिकोंका परिपाठन निरथैक नहीं; अपि तु सार्थक है । दोद्दा-मित्र राद देखत खड़े, इक छाया इक घूप । बतपाङनसे देवपरः, अव्रत दुगेति कृप ॥ ३ ॥ कांका--यहाँपर शिष्य पुनः प्रन करता हुमा कता दै--“ यदि उपरिशेखित कथनको मान्य किया जायगा, तो चिद्श्प आत्मामं भक्ति भाव ८ विदुद्ध अंतरंग अनुराग ) करना अयुक्त ही हो जायया ? कारण कि आत्मानुरागसे दोनेवाला मॉक्षरूपी सुख तो योग्य द्रव्य क्षेत्र काठ, मावादिन्प सम्पत्तिकी प्रा्षिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत दर हो जायगा ओर बीचमेँ दी मिर्ने- वाला खगोरि-सुख व्रतोके साहाय्यम मिट जायगा । तव फिर आत्मानुराग कालेसे क्या लाम ? अथात्‌ सुखा्थीं साधारण जन आसानुरागकी ओर आकर्षित न होते हए ततादिकौकी ओर ई अधिक झुक जाएँगे । समाधान--शंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले, ८ व्रतादिकोका आचरण करना निर्स्थक नददी है। ” (अर्थात्‌ साथक है ) इतनी दी बात नहीं किन्तु आस-मक्तिको अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है । इसी कथनकी पुष्टि करते हुए आगे इलोक लिखते हैं:--ञ ३ ॥ १ मध्यङुभ्यस्य । २ अयुक्तिः ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now