हिन्दी साहित्य को हिन्दीतर प्रदेशों की देन | Hindi Sahitya Ko Hinditar Pradeshon Ki Den

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी की प्रगति एवं विवास में हिंत्दीतर प्रदेगो की देन 113 है जिसे दक्षिण भारत के निवासियों को राष्ट्र की एकता के हित में करना चाहिए 1 स्वाधीनता-सग्राम के दौरान राष्टरोय चेतना जैसे-जंसे तीव्र होती गई, वैसे चैसे सप्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी में विव्स का झ्नुभद भी दुद होता गया । राष्ट्रीय आर्तीय कांग्रेस की स्थापना के बाद इस कार्य में तीव्रता भरा गई गौर जव बाम्स मो नेतृत्व महातमा माधी के हाथो भे श्राय नव उन्होंने राष्ट्रभाया के दार्य को भी अन्य राष्ट्रीय कार्यो के साथ जोड़ दिया । 1909 ई० में गाधीजी ने झ्रपनी पुस्तक हिन्द स्वराज्य मे लिला चा--“सरे हिन्दुस्तान वे लिए तो हिन्दी ही होनी चाहिए ! उसे उर्दू या मागरी लिपि में लिखने वी छूट रहनी चाहिए ।” राष्ट्रभापा हिंन्दी बे सवन्ध म 5 जुलाई 1928 के “यग-इडिया' में तो उन्होंने यहा सब बह डाला मे यदि तानाशाह होता, तो श्राज ही विदेशी भाप! में शिक्षा वा दिया जाना बन्द वर देता । जो श्रानाकानी करते, उन्हें वर्खास्त कर देना । मैं पादय-पुस्तकों वे यार किये जने का इन्तजार न केरता 1 चस्तुत काग्रेस के नेतारो का ध्यान राष्ट्रभापा की श्राचद्यता बौ श्रो 15दी शताब्दी के झ्रारम से ही केन्द्रित होने लगा था । लोकमान्य वालमगायर तिलक वा हिन्दी प्रेम उनकी राष्ट्रीय भावना की उपज था । राष्ट्रीय आन्दोलन के सचालन के लिए वे एक राष्ट्रभापा की घावश्यकता का झनुभव बहुत पहले से ही करने लगे थे । उन्होंने शुक समरण-पत्र के उत्तर मे लिखा था--“'राष्ट्रभाषा वी घ्ावस्यकता श्रव सर्वत्र समभ जाने लगी है । राष्ट्र के संगठन के लिए झाज ऐसी भाषा वी झावश्यकता है, जौ सर्वेन आएानी से समकी जा सके । लोगों में भ्रपने विचारों का भ्रच्छी तरह प्रचार करने थे लिए भगवान बुद्ध ने भी एक भाषा को प्रधानता देकर कार्य निया था । हिन्दी भाषा 'सप्ट्रभापा वन सबती है। सा ट्रभापा मबंसाघरण के लिए जरूर होनी चाहिए । ममुष्य हृदय एक दूसरे से विधार-विनिमय करना चाहता है । इसलिए राष्ट्रभापा की चहुत जरूरत है । विद्यालया में हिन्दी थी पुस्तवों का प्रचार होना चाहिए । इस प्रकार, यह कुछ ही वर्षों मे राष्ट्रभापा बन सकती है ।” ... _. राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-का्ये उस समय तक केदल हिमालय श्रीर्‌ विन्ध्याचल से बीच ही सुचारु रूप से चल रहा था । झावश्यवता इस बात की थी कि इसे दक्षिण भारत मे भी प्रवतत विया जाय । उत्तर भारत की सभी भापायें हिन्दी की भगिनी कै तुल्य थी श्रौर इनम भापागत निवटता यी । यहं बात दक्षिण की भाषाओं के साथ नहीं थी । अत दक्षिण में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के श्रमाव से न तो राष्ट्रीयता का सूत्र ही मज़बूत हो सकता श्रौर न हिन्दी को झखिल भारतीय भाषा का रूप ही मिल पाता । इसी तथ्य से प्रेरित होकर महात्मा गाधी ने 1918 में श्रायोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन के सभापति वा पद प्रहण करने का श्रामत्रण इस दातं पर स्वीवार किया कि दक्षिण भारत मे हिन्दी के प्रचार के लिए एक लाख रुपये सम्मेलन थी ओर से मिल जाए । उन्होंने अपने 18 वर्षीय पुम देवदास को इस महत्त्व पूर्ण कार्य के लिए दीक्षित क्या श्रौर कायकताग्रो को कार्यरत करने थी एवं दीघं- सूचीय योजना भी तैयार की । फलस्वरूप सद्रास में दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा वी स्थापना हुई ग्रौर हिन्दी श्रध्ययन अझघ्यापन का कार्य राष्ट्रीय कार्य के रुप म श्रग्रसर हुझा । इसी तरह कौ एकं सस्या वर्धा मे भी स्थापित हुई भोर उसने विन्ध्या के उत्तर मे और विशेषवर भारत के पूर्वांचल में हिन्दी के प्रचार या उल्लेखनीय कार्य वियाज न.




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