जालौन जनपद के मध्यकालीन प्रमुख भवनों का ऐतिहासिक मूल्यांकन | Jalaun Janpad Ke Madhyakalin Pramukh Bhavno Ka Itihasik Mulyakan

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Jalaun Janpad Ke Madhyakalin Pramukh Bhavno Ka Itihasik Mulyakan by श्रीमोहन लाल श्रीवास्तव - Shreemohan Lal Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृति नष्ट हो गयी किन्तु नये साक्ष्यों से अब यह प्रमाणित हो गया है कि लोग उन नगरों को छोड़कर चले गये थे न कि उन्हें तहस नहस किया गया था और सरस्वती नदी का सूखना ही इस पलायन का मुख्य कारण रहा था । सिन्धु नदी घाटी युग में सतलज नदी सरस्वती नदी से मिलती थी । बाद मेँ उसने अपना मार्ग बदल दिया ओर यह सिन्धु से जा मिली । इस कारण आई बाढ़ और जल भराव भी उन नगरों को छोडकर अन्यत्र जाने का कारण रहे हैं । उधर धीरे-धीः. सरस्वती नदी सूखती चली गयी । नये तथ्यो के प्रकाश से यह स्पष्ट है कि हड्प्पा कालीन नगरों का लोगों दारा परित्याग कटे के कारण इतिहास में कोई अन्धकार युग नही आया बल्कि स्थान परिवर्तन कर अपनी ही संस्कृति को पुनः स्थापन की प्रावस्था का युग निर्मित हुआ जिसमें उन निवासियों की वहीं अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का विकास जारीरहा। सांस्कृतिक अविच्छिन्नता (सातत्य) सिन्धु नदी घाटी क्षेत्र को कांस्य और लौह युग से जोड़ती है | वही प्राचीन संस्कृति तत्कालीन कृषि और उद्योग धन्धों के विकास से जुड़कर प्रगति करती रही । इसी संस्कृति के सातत्य का एक भाग वह क्षेत्र है जिसमे अग्निवेदियों का प्रयोग होता था । अग्निवेदियौँ उन वेदिर्यो के समान है जिनका उल्लेख वेदों में किया गया है । ऐसी अग्रिवेदियाँ हड़प्पा स्थलों मेँ विशेष रूप से पंजाब के काली बगान ओर गुजरात के लोथल के उत्छनन में बहुतायत से प्राप्त हुई हैं । वास्तव में वेदों से सम्बन्धित अग्निपूजा की . हड़प्पा कालीन धार्मिक कृत्यों + प्रमुखता थी । | रेगीन धूसर मृणपात्र जो किं आक्रमणकारी आर्यों के पात्र समझे जाते थे, उन्हे इस क्षेत्र में विकसित होती हुई सांस्कृतिक अविच्छिनता के उत्पाद के रूप में. स्वीकार करके, हड़प्पा शैली से जोड़ दिया गया है । इसी प्रकार से लोहा को भी यह माना जाता रहा है कि आक्रमणकारी आर्य इसे अपने साथ लाये थे, परन्तु इसको भी अब अविच्छिन सांस्कृतिक विकास से जोड दिया गयाहै अश्च के विषय मेँ यह मान्यता रही है कि आर्यो काप्रतिनिधि १९०० ई०पू० तक भारत भूमि में मिलता ही नहीं था,अब इसी अश्व के गगा के मेदानों मे २००० ई०पू० से लेकर ६००० ई०पू० तक की काल सीमा मेँ पाये जाने के प्रमाणो से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आये बल्कि वे इसी भारत भूमि के थे ओर हैँ | सरस्वती नदी पर केन्द्रित वैदिक संस्कृति स्थान परिवर्तित करके पौराणिक «संस्कृति के रूप में गंगा नदी पर केन्द्रित हो गयी । यह घटना उन पुरातत्वीय साक्ष्यों से मेल खाती है जिनसे स्पष्ट होता है कि सरस्वती केन्द्रित हड़प्पा संस्कृति १०० ०ई०पू० विखर कर गंगा केनदरित संस्कृति के रूप में पुनः निर्मित हुई । वेदकाल में होने वाले अनुनां के आधार-नक्षत्र॒ ` ७ -




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