आध्यात्मिकी | Aadhyatmikee

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Aadhyatmikee by महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahaveer Prasad Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झात्मा ॥ ~ रथात्‌ चेष्टा, इन्द्रिय श्रैौर अथे इने प्रश्रय को शरीर कंपे ई ¦ चेष्टा सै चलना ध्रादि सारे काय्यै कलाप; इन्द्रिय सेः पच्चन्ञनेन्द्रिय; रथै से ज्ञानेन्दिय द्वारा पदार्थो के संयोग-वियोग का ज्ञान श्रौर तज्ननित सुख-दुःखादि समभने चाहिए । जैसे सृत्तिका से घर वनता है वैसे ही प्रथ्वी, जलल, तेज, बायु, झाकाश, इन पाँच तत्वों के मेल से शरीर वनता ₹ै। यदह नियम है कि जो जिस वस्तु से बनता है उसका गुण उसमें न्यूनाधिक भाव मे अवश्य रहता है । यदि शरीर को सचेतन श्रौर सज्ञान मानते ह ता इन पाँच पदार्थो मी तरत्‌ मानना पड़ता है, क्योकि यह नहीं हो सकता कि कायै मेनो वस्तु देख पड़ बह कारण में न पाई जाय । परन्तु पृथ्वी, जल, तेज, वायु, शरीर श्राकाश क्ती क्या कभी किसी ने सचेतन श्रौर सज्ञान देखा है ? कभी नहीं । झतएव चेतनत्व श्रौर ज्ञानात्मकत्व शरीर का नद्दीं, किन्तु अन्य किसी वस्तु का धर्म है श्ौीर जिसका बद्द धर्म दै उसी को आत्मा कहते हैं । यदि शरीर का धर्म होता ता जब तक उसका लोप न हो जाता तत्र तक तद्धरस्म का भी ललोप न होना चाहिए था; क्येंकि धर्म्मी घ्लौर धर्म्म॑ का यही खभाव है। परन्तु मरणानन्तर शरीर पू्ववत्त बना रहने पर भी ज्ञान का अभाव ‰ कारणपू्धेकः काथ्यैयुणो दः अध्याय २, श्राद्धिक १, सूत्र २४--्र्थात्‌ जे गुण कारण में होता है वहीं काय में भी पाया ज्ञाता है ।




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