धर्मशर्माभ्युदय | Dharmasharmabhyudaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भस्तावना काव्य-चर्चा-- यह बिलकुल सत्य है कि जनताके हृदय पर कविताका जितना श्वसर पढ़ता है. उतना सामान्य वाणीका नहं । कथिता एक चमलारमयी भारती है--कविता धरोताओं के हृदयोंमें एक गुदगुदी पैदा करती है जिससे रूढ गणय भी उनके हृदय-स्थलमें सरलतासे प्रविष्ठ हो जाते हैं । सामान्य आदमी जिस गातो कहते.व्ते धं बिता देता है. श्रौर झपने कार्य सफलता प्रा नहीं कर पाता उसी विषयको कवि शपनी सरस कविताोंसि च एकमे सफल बना देता है । यदि भावुक दृ्टिसे देखा बाय तो चन्द्र, चांदरीमें, गज्ञमें, गज्ञाके कलस्वमं, दरिालीमें, रज्ञ'विरजे फूलों, धूपमें, छायामें--सब जगह कवित्व विखरा हुआ पड़ा है । जिसकी डन्तरात्मामें शक्ति है उसे संचित करनेकी, वह मनोहर मालाएँ मूता है शौर संसारके सामने उन्हें रख झ्रमर कीर्ति प्रात करता है । काव्यका स्वरूप-- काव्य क्या है! इस विषयमें श्रनेक कवियेंके नेक मत दै श्रानन्द- वर्षनने प्वन्यालोकर्मे भ्वनिको, कन्तके वक्रोक्तिजी वितमें बकोक्तिको,, भोजदेवने सरस्वतीकरठाभरयमें निदो स्यु श्रौर सरस शब्दार्थको, मम्मद ने कान्यप्रकाशमें दोष रहित, गुण सहित श्बौर श्रलंकार युक्त (कहीं कहीं श्लंकारसे शूर्य मी) शब्द शरीर शर्यको, विश्वनाथने साहित्यदर्पणुमें रखात्मक काव्यको, परिड्तराज जगन्नाथने विच्छित्ति चमत्कार पैदा करने. बाले शब्दायं-समूदको, वाग्मट घर झचितसेनने भोजराजकी तरह निर्दोष गुण, लालंकार तथा सर्त शब्दार्थको काव्य माना है । और भी साहित्य




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