पूजन रत्नाकर | Pujan Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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35 हमें यह्‌ विचारना चाहिये कि यदि खाज भमत्र ससवन शरण में साक्षात्‌ विराजमान दोते तो इम वहाँ पहुँचकर कया प करते ? उनकी शान्ति छवि के दशंन पधुजन करके ऋपने जीवन को धन्य मानसे तथा चहाँ बैठकर उनके उपदेश से लाम उठाते । दम चाहें तो वही सारे लाभ आज भी मन्दिर में प्राप्त ो सकते है । भगवान की मूति को साक्तात्‌ भगवान मानकर वशेन पूल करके अक्षय पुण्य और वीवरागता प्राप्त कर सकते है तथा भगवान्‌ की वाणी जो शास्त्रों मे विद्यमान दै उसके अध्ययन से हृदय के अन्धकार को भगाकर 'झात्मा को प्ररम पवित्र बनाने का मां भी प्रशस्त कर सकते है। पर यह सब दमारी दृष्टि और बिचारों पर निर्भर दै। इस विषय पर सम्पादक जी ने भी पर्याप प्रकार! डला दै । प्रस्तुत ग्रन्थ जेनपूजा की साधकता तथा उसकी विधि को पृणेतया समकने वाले सादित्य का अभाव लोगों को बहुत समय के खटक रद्दा था। यह विषय परम्परा से उपासकों को ज्ञात होता रहा है पर इसका सर्वाङ्ग विवेचन करने वाली कोई खास पुस्तक देखने मेँ नहीं आई । मन्दिरों मे जो पूजायें होती हैं उनके लिये कई मिन्न २ धुस्तकों का उपयोग करना पढ़ता था तथा एक ऐसे समदद की आवश्यकता प्रतीत होरदी थी जिससें उपयोग में आने वाली भिन्न २ कवियो की समी श्चावश्यक पूजाओं का संकलन हो । इन्हीं दो उद्‌ श्यो स यह (पूजन रत्नाकर ' जैन सिद्धान्त प्रस्थमाला के तीसरे पुष्प के रूप में झापके सम्मुख हैं । इसके सस्पादक श्रीमान प० अजितकुमारजी शास्त्री (मुलतान- वाले ) समाज के सुप्रतिष्ठित, सुपरिचित व॒ उश्वकोटि के विज्ञान हैं । आपने पूजन और उसकी विधिका सर्वाज्ञ सुन्दर विवेचन किया है जो पाठकों को पूजन विषयक जैन दृष्टिकोण को सममे में




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