श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक | Shri Mokshamarg Prakashak

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Shri Mokshamarg Prakashak by मगनलाल जैन - Maganlal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१५ है ज्ञानपिपामुमोकी तुष्तिका कारण वनी हुई है गौर आपके वचन प्राचीन माचार्योकी तरह ही प्रमाण माने जाते हैं। स्वाभाविक कोमलता, सदाचारिता, जन्मजात विद्वत्ताके कारण ग्रृहस्थ होकर भी * आचार्यक्प * कहलानेका सौभाग्य मापको ही प्राप्त है । धर्म जिज्ञासुसे लेकर प्रौढ विद्वान सभीके लिये यह “मोक्षमार्गप्रकाशक ° ग्रन्थ्‌ अति उपयोगी सिंद्ध हुआ है । माज तकं ३४२०० पुस्तकें हिन्दी, गुजराती, मराठीमे छप छुकी हैं, वही इसकी उपयोगिता सिद्ध करती हैं । - पण्डित्तजीका जन्म सवत्‌ १७९७के लगभग जयपुरके खडेलवाल जैन परिवार तथ गोदीका' गो्रमे हुमा ! जोगौदास आपके पिता ये ओर माताका नाम रम्भावाई था । चचपनमे ही इनकी व्युत्पन्नमतिको देखकर इन्हें खूब पढाकर योग्यतम पुत्र घनानेका मिस्चय कर, ४-५ वर्षकी अवस्थामे इन्हे पढ़ाने बैठा दिया गया । चाराणसीसे एक विद्वेप विद्वान इनको पढानेके लिये बुलाया गया । प० टोडरमलजीको १०-१२ वर्पेमे ही व्याकरण, स्पाय एव गणित-जैसे कठिन विपयोंमे गम्भीर ज्ञान प्राप्त हो गया । [ एक जनश्रुति श्री टोडरमठजीके जीवनके वारेमे सुनी जाती है कि-- एक जैन विद्वानने निमित्तज्ञान द्वारा जाना कि यह वालक भवय्य भपने जीवनमे धर्मघुरघर वीरपुरुप होगा. , परचात्‌ उन्होंने जयपुरके दीवान रतनचन्दजीसे निवेदन किया कि यदि इस वालकको पढानेके लिये मुझे समर्पित कर दें तो मल्प समयमे ही सर्वोत्तम विद्वान वन जायगा । तब दीवान सा० ने वडे हपके साथ, गाजे-वाजेके साथ चालकके माता-पिताके पास जाकर उसे पढानेका सुझाव दिया, जिसे माता- पिताने सहपे स्वीकृत कर लिया । वालक थोडेसे समयमें ही पढकर आशातीत विलक्षण चुद्धिमान वन गया । | इनकी स्मरणशक्ति विलक्षण थी, गुर जितना उन्हे पढाते थे उससे अधिक याद करके उन्हे सुना देते थे । इनके शिक्षक उनकी प्रतिभा एव सातिदाय य्युत्पनमति- को देखकर दद्ध रह जाते और इनकी रृषक्ष्मवुद्धिकी भूरिभूरि प्रशसा करते ये । मोक्षमार्गं प्रकादाकः ग्रन्थकी भरमिकामें स्वयका परिचय दियादहै कि “मैंने इस यामे मनुप्यपर्याय पायी, वहाँ मेरा पू प्ष्कारसे वा भला होनहार था इसलिये मेरा सैनघर्ममे मभ्यास करनेका उम हज 1“ यह्‌ कथन आपकी पूवंमवकी साधना भौर वर्तमान असाधारण योग्यताको सूचित करता है । माप जन्मजवाहर तो ये ही, ययू पुसपार्थके व द्रा जाप मल््वपूण आत्मप्रज्ञाके घनी वन गये 1 अतएव योडे ही




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