श्रीवत्स | Shreevats

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ दश्य १] श्रीवत्स नारद-े इस विचार से सहमत नही । कन्या-रन कहीं स नी प्राप्न हो, वह्‌ अरदण करने योग्य है । कहा हैः-- खी रलं दुष्छुलादपि। रीर भीः- लियो सनान्यथो विया घमः शाच सुमापितम्‌ । विविधानि च भिल्पानि समदेयानि सर्वतः ॥ शनि-्े यदी नदीं मानता । इंद्र-इस प्रश्न से न आपका संघंध है न मरा । इस विपय में विष्णुदेव प्रमाण हैं । आपके मानने न मानने से क्या होगा ? शानि-मेय संवंध तो इस बातसे है कि अज्ञात कुलजा लक्ष्मी मुकसे पदवी में वड़ी नहीं हो सकती । में उससे बड़ा हूँ । लक्ष्मी--विश्व के पालन-पोपणु-कर्त्ता की खत्री के नाते मैं वड़ी हूँ । मेरी सब लोग पूजा करते हैं । मेरे लिए सब लोग लालायित “रहते हैं । सेरी कृपा से रंक भी राजा वन जाता है । मुझे प्राप्त करके लोग गद्गद दयो उठते है, श्रौर तुम्हारी सूरत देखकर . ... शनि-खौर क्या १ तुम गोरी और मैं काला ! क्या तुम जानती हो कि तुम्हारे पति विष्णुदेव का कैसा रंग हैः कैसी सूरत . है? सुनो, उन्दै भौ यही वणं प्रिय है। जिस वशे की महिमा विष्णुरेव स्वी कार करते हैं, उसकी घुराइ तुम भला क्या कर सकती हो ? तुम लोगों में पूजी जाने से अपनी वड़ाई समकती हो परंतु मैं सुम्हें वताये देता हूँ कि मेरी भी लोग बड़ी श्रद्धा से पूजा करते हैं । लक्ष्मी-श्रद्धा से नहीं, भय से । प्रेम से किसी की पूजा- स्तुति करना उसकी महत्ता प्रकट करता है, भय से लघ॒ता । संसार में पालन-पोषण-कत्ता बड़ा कहा गया है; विनाश-कत्ता नहीं । शनि--लक्ष्मी ! कगड़ती क्यों हो ? अभी निर्णय हुआ जाता श्री० २




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