श्री जैनमत वृक्ष | Shri Jainmat Vriksh

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Shri Jainmat Vriksh  by आचार्य जिनविजय मुनि - Achary Jinvijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) . अपने आपकों सबेमें सुख्य ठदशये. यह कंथन श्री - अगवती सूच: आवश्यक सूच: जाचारादेतकर आ- दि थथौ है. ` = प ८. १० ) श्री शीवछनाथ अरिहंत; तिरक ८९, गणधर ओर, ८९, गच्छ. आद्द्यकादों अ-जब श्री शीताय दशम अरिदंत हुए. तब ति नोने फिर जैनघमकी: पति करी; परंठ जंगली ऋषि बाहमाणोंनें. तिनका उपदेश न माना किंठ भगवाय शीतलूनाथके विरूद्ध प्ररुपणा करके, वेद धर्म ऐसा ` . नाम रखके एकमत चलाया. तिसमतकों: बहुत ठोक... मानने लगे; तब वेद धमं जगत ्रासेद्ध हमा. प सेहरी शरी धर्मनाथ तीर्थकर भगवाच्‌ तक स्वं जगे कितनेख कारु जेन धं व्यवच्छेद होता गया, मौर पेद धमे प्रगट गयी. यहु सागपे-सिरि भर्द्‌- चक्रव आयस्य वेयाण विस्ख- उष्यत्ति माहण ढणत्यमिण कडियं सरुचाण विवहार ॥ ९ ॥ जि णतित्थेडुच्छिण्णे मिछतते माहणे डिंतेठ पिया अ संज- . याण प्रज! अष्पाणं कटि मातहिं ॥२५* इनदौनों माका सदाथ यद्रे. श्री ऋषभदेवके पुत्र भरत




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